जब तक लोगों के विचार परिष्कृत नहीं होंगे , ' जियो और जीने दो ' की भावना नहीं होगी , तब तक अत्याचार और उत्पीड़न समाप्त नहीं हो सकता l केवल स्वतंत्रता मिल जाने से अत्याचार समाप्त नहीं होता l केवल बाहरी ताम -झाम के आधार पर ये नहीं कहा जा सकता कि समाज बहुत संवेदनशील है l अत्याचार और उत्पीड़न ऐसा घृणित कार्य है जिसमे पीड़ित व्यक्ति का दिल छलनी हो जाता है , उसकी आत्मा रोती है l अहंकार एक मानसिक विकृति है और इसी विकृति से ग्रस्त लोग संवेदनहीन होते हैं , अपने अहंकार के पोषण के लिए अत्याचार करते हैं l अत्याचार , उत्पीड़न केवल नारी का ही नहीं है , जहाँ जो कमजोर है , वही उनका शिकार है , l यह उत्पीड़न तब और असहनीय होता है जब अपराध करने वाला समाज में खुला घूमता है l अपनी बुद्धि का दुरूपयोग कर कई लोग ऐसे अपराध करते हैं कि वे कभी कानून की पकड़ में आ ही नहीं सकते l कहते हैं प्रकृति में क्षमा का प्रावधान नहीं है , यदि लोग कर्मफल से , ईश्वरीय न्याय से डरने लगें तो स्थिति में कुछ सुधार संभव है l
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