पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----- ' वाणी को विराम देना मौन कहलाता है , परन्तु सार्थक मौन उसे कहते हैं , जब मन में सद्चिन्तन होता रहे l जिह्वा को बंद रखकर मन में ईर्ष्या -द्वेष का बीज बोते रहने को मौन नहीं कहा जा सकता l यह तो और भी खतरनाक एवं हानिकारक सिद्ध हो सकता है l मौन के साथ श्रेष्ठ चिंतन और ईश्वर स्मरण आवश्यक है तभी मौन की सार्थकता है l महर्षि रमण सदैव मौन रहते थे l वे बिना बोले ही हर एक की जिज्ञासा को शांत करते और हर कोई उनसे अपनी गंभीर समस्या का समाधान अनायास पा जाता था l महात्मा गाँधी के मौन का प्रभाव सर्वव्यापक था l महान दार्शनिक बंट्रेंड रसेल ने भी मौन की महत्ता को स्वीकार किया है l
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