गुरूदेव श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर मृत्यु शैया पर अंतिम साँसे ले रहे थे l तभी एक व्यक्ति आकर बोला --धन्य हैं आप ! आपने अपना जीवन सार्थक कर लिया l छह हजार गीत रचे , आप तो तृप्त हो गए होंगे l दुनिया के लिए एक अनूठी धरोहर छोड़ी आपने l गुरुदेव श्री रवीन्द्रनाथ ने आँखें खोलीं और बड़ी नम्रता से बोले ---- " तृप्त कहाँ हुआ ? मेरा प्रत्येक गीत अधूरा ही रहा ! जो मेरे उदगार थे वो तो अभी भी अटके हुए हैं l ये तो छह हजार उस दिशा में की गईं असफल चेष्टाएँ हैं , उन उदगारों को बाहर लाने के प्रयास हैं l मैंने छह हजार बार कोशिश की किन्तु वह गीत अधूरा ही रहा जिसे गाना चाहता था l उस गीत को , उस उदगार को गाने का प्रयास करने में ही लगा था कि जब तक बुलावा आ गया l
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