एक संत ने एक विद्यालय प्रारम्भ किया , जिसका उद्देश्य था ---संस्कारी युवक -युवतियों का निर्माण l एक दिन उन्होंने अपने विद्यालय में एक वाद -विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया , जिसका शीर्षक था --- ' प्राणिमात्र की सेवा l ' निर्धारित दिन वाद -विवाद प्रतियोगिता प्रारंभ हुई , जिसमे बोलने के लिए कई विद्यार्थी मंच पर आए और एक से बढ़कर उदबोधन दिया , परन्तु जब पुरस्कार देने का समय आया तो संत ने पुरस्कार एक ऐसे विद्यार्थी को दिया , जो प्रतियोगिता में सम्मिलित ही नहीं हुआ था l यह देखकर विद्यार्थियों में और कुछ सदस्यों में रोष के स्वर उठने लगे l उन्हें शांत कराते हुए संत बोले --- " प्यारे मित्रों और विद्यार्थियों ! इस प्रतियोगिता स्थल के द्वार पर मैंने एक घायल बिल्ली को रख दिया था l तुम सभी उस द्वार से अन्दर आए , पर किसी ने उस बिल्ली की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा l यही छात्र एकमात्र ऐसा था , जिसने वहां रूककर उसका उपचार किया और उसे सुरक्षित स्थान पर छोड़ आया l सेवा -सहायता भाषण का विषय नहीं है , जीवन जीने की कला है l जो अपने आचरण से शिक्षा न देता हो , उसके वक्तव्य कितने ही प्रभावी क्यों न हों , वे पुरस्कार पाने के योग्य नहीं हैं l " सत्य का पता चलते ही रुष्ट विद्यार्थियों और शिक्षकों की गरदन शरम से नीची हो गई और वे पुरस्कृत विद्यार्थी के व्यवहार के प्रति नतमस्तक हो गए l
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