प्रकृति हमें हर पल संकेत देती है , लेकिन मनुष्य उसे समझता नहीं है या अपने विकारों में इस तरह बंधा हुआ है कि समझते हुए भी नासमझी करता है l हमारे देश में विजयदशमी पर रावण जलाया जाता है , प्रतिवर्ष यह रावण और बड़ा होता जाता है l धार्मिक आस्था भी है , रोजगार की द्रष्टि से भी पटाखे , मेला आदि से लोगों को कुछ न कुछ आमदनी हो जाती है , त्योहार के बहाने लोग खुशियाँ भी मना लेते हैं l इन सब बातों से अलग हटकर प्रकृति के खेल निराले हैं l यदि विजयदशमी के दिन बहुत तेज पानी बरस जाए तो असुरता को छिपाने के बहुत तरीके हैं l रावण , कुम्भकरण , मेघनाद सभी पुतले रूपी असुरों को छिपा लिया जाता है , इसी में प्रकृति का सन्देश छिपा है कि अपने ऊपर अच्छाई का आवरण डालकर अपने भीतर बैठी कामना , वासना , तृष्णा , छल , कपट , षड्यंत्र , लोभ , लालच , अति महत्वाकांक्षा जैसी दुष्प्रवृतियों को मत छिपाओ , ये दुष्प्रवृत्तियाँ व्यक्ति को जीता -जगता रावण बना देती हैं , इनसे सारा संसार त्रस्त है l जैसे सद्गुण वंशानुगत हैं , अभिमन्यु ने गर्भ में ही चक्रव्यूह सीख लिया वैसे ही ये बुराइयां, दुष्प्रवृत्तियाँ भी वंशानुगत है , पीढ़ी -दर -पीढ़ी चलती रहती हैं और सन्मार्ग दिखाने वाला कोई न हो तो बढती जाती हैं रावण ने असुरों का ही साम्राज्य खड़ा किया , एक लाख पूत , सवा लाख नाती सब असुर थे l इसलिए प्रकृति हमें सिखाती है कि अपने भीतर की असुरता को मिटाओ l प्रकृति में क्षमा का प्रावधान नहीं है , उसके क्रोध से कोई बच नहीं सकता l
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