लघु कथा ---- एक राजा था , उसे अपने सौन्दर्य व संपदा पर बहुत अभिमान था l उसे लगता था कि सारे राज्य का भरण -पोषण वही कर रहा था , नागरिकों को जो भी सुख -सुविधा है , वह सब उसी की बदौलत है l उसका राज्य प्राकृतिक द्रष्टि से बहुत साधन -संपन्न था इसलिए वह आवश्यकतानुसार दूसरे राज्यों की भी बहुत मदद कर देता था l इस कारण उसका अहंकार बहुत बढ़ा -चढ़ा था l एक दिन एक साधु उसके दरबार में आए l राजा ने दर्प से उनसे पूछा --- " बोलो , क्या चाहिए तुम्हे ? ' साधु मुस्कराते हुए बोले --- ' राजन ! तुम्हारे पास अपना क्या है , जो तुम मुझे दोगे ? जो तुम्हे सौन्दर्य मिला वह तुम्हारे माता -पिता का है l तुम्हारे भंडार गृह का धन्य धरती माँ का और कृषकों के श्रम -पसीने का है l राज -पाट , प्रजा ने तुम्हे दिया है l तुम्हारे शरीर में जो प्राण हैं , वो प्रकृति ने तुम्हे दिया है l शरीर छूटते ही ये सब छूट जायेगा l " साधु की इन बातों से राजा का अहंकार नष्ट हो गया l वह समझ गया कि यह सारा संसार तो ईश्वर ही चलाता है , संसार में जो भी काम हैं , वे सब ईश्वर के हैं l यह हमारा सौभाग्य है कि हमें ईश्वर ने श्रेष्ठ कार्यों के लिए नियुक्त किया l यदि हम ये कार्य नहीं करेंगे तो ईश्वर इन्हें किसी और से करा लेंगे , फिर हम ही उस श्रेष्ठता से वंचित रह जायेंगे l इसलिए उचित यही है कि स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि समझकर कार्य करे और अहंकार न करे l राजा ने झुककर साधु को प्रणाम किया l
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