लघु कथा ---- एक सेठजी थे l उनकी पत्नी का निधन हो गया l सेठ ने सोचा कि क्यों न चारों बहुओं को परखकर उनमे से किसी एक को घर का सम्पूर्ण दायित्व सौंप दिया जाए l इस विचार के साथ उन्होंने चारों बहुओं को धान के पांच दाने देते हुए कहा --- इन्हें संभाल कर रखना और जब मैं मांगू तो मुझे लौटा देना l चारों बहुएं दाने लेकर चली गईं l बड़ी बहु ने सोचा कि भंडार गृह में पर्याप्त धान पड़ा है , इसलिए जब भी ससुर जी मांगेंगे तो वहीँ से लाकर दे दूंगी l दूसरी और तीसरी बहु ने भी ऐसा ही सोचा और उन तीनों ने अपने धान के दाने उसी भंडार गृह में डाल दिए l चौथी बहु ने सोचा कि सत्कर्म करने से वह बढ़ता है इसलिए उसने पाँचों दानों को खेत में बो दिया , उनसे जो फसल हुई , उसने उन्हें फिर से खेत में बो दिया l पांच वर्ष बाद सेठजी ने बहुओं से दाने वापस मांगे तो पहली तीन बहुओं ने भंडार गृह से दाने लाकर वापस कर दिए , परन्तु चौथी बहु ने सारी कहानी सुनाते हुए कहा --- " पिताजी ! वे पांच दाने असंख्य दानों में बदल गए और उन्हें एक दूसरे भंडार गृह में रखना पड़ा l " उसकी कथा सुनकर सेठ बहुत प्रसन्न हुआ और बोला --- " पुत्री ! जिस प्रकार धान के दाने बोने से बढ़ गए , वैसे ही पुण्य , सेवा और परोपकार के कार्यों से बढ़ता है l मुझे तुम पर विश्वास है कि तुम अपने परिवार की पुण्य संपदा को बढ़ाओगी l " सेठजी ने छोटी बहु को घर की मालकिन बना कर उसे सम्पूर्ण जिम्मेदारी सौंप दी l
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