पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----' इस स्रष्टि में मात्र कर्मफल का सिद्धांत ही अकाट्य है l स्रष्टि में कभी किसी के साथ पक्षपात नहीं होता l व्यक्ति अपने कर्मों से बँधा है , कर्म को काल नियंत्रित करता है l लेकिन जो कर्म और काल दोनों को नियंत्रित करता है , वह महाकाल है l " आचार्य श्री आगे लिखते हैं ----- "ऋणानुबंधन ही वह कारण है , जिसके कारण सभी मनुष्य इस संसार में बँधे हुए हैं l जिस व्यक्ति के प्रति हमारा ऋण होता है , हमें उसी व्यक्ति को वह ऋण चुकाना पड़ता है , फिर चाहे वह इस जन्म में हो या अगले जन्म में l कर्मफल को पूरा भोगे बिना प्रकृति हमें आगे बढ़ने नहीं देती और इसे भोगने के लिए किसी न किसी को निमित्त बनाकर हमारे समक्ष प्रस्तुत कर देती है l " कर्मफल से कोई नहीं बचा है , चाहे फिर वह स्वयं भगवान ही क्यों न हों ल भगवान श्रीकृष्ण जब रामावतार के रूप में थे , तब उन्होंने छिपकर बालि पर तीर चलाकर उसे मारा था l इस कर्म के पीछे सुग्रीव का हित था , लेकिन जब उन्होंने श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया तो इस कर्म का फल भोगना पड़ा l उसी बालि ने ' जरा ' नाम के बहेलिये के रूप में छिपकर उनके ऊपर यह समझकर तीर चलाया था कि जंगल में वहां कोई जानवर है l इस तरह भगवान श्रीकृष्ण का भोग पूरा हुआ l " आचार्य श्री कहते हैं --- 'प्रकृति के इस रहस्य को जो व्यक्ति समझता है , वह कभी अपने जीवन से शिकायत नहीं करता , बल्कि स्वयं को शुभ कर्मों की ओर प्रेरित करता है l वह अपने दुःख , कष्ट आदि के लिए दूसरों पर दोषारोपण नहीं करता , और शुभ कर्मों द्वारा स्वयं के जीवन को प्रकाशित करने का प्रयास करता है l
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