अति की महत्वाकांक्षा व्यक्ति को स्वार्थी बना देती है l उन्हें किसी की हानि -लाभ से मतलब नहीं होता l उसकी समूची शक्तियों की खपत इसी में होती है कि महत्त्व को कैसे पाया जाये l महत्वकांक्षी व्यक्ति की रूचि सही रास्ते से सच्चाई के साथ आगे बढ़ने में नहीं होती , वह अपने महत्त्व को जैसे -तैसे पाना चाहता है ताकि समाज में उसका सम्मान हो , सब उसे सलाम करें l पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---महत्त्व की पाने की ललक ऐसा विष है जो जिस क्षेत्र में घुलेगा , उसे विषैला बनाएगा l l मनुष्य जब तक अपनी सही , सच्ची स्थिति में बना रहता है , तब तक वह अनेक प्रकार की मुसीबतों से बचा रहता है , किन्तु जैसे ही मिथ्या आडम्बर और स्वयं को बढ़ा -चढ़ाकर प्रदर्शित करने की प्रवृति उसमे विकसित होती है , वह स्वयं उसके लिए भी घातक होती है l
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