महर्षि शाल्विन की प्रथम पत्नी श्लेषा और दूसरी पत्नी इतरा , भिन्न -भिन्न जातियों की थीं l दोनों में परस्पर अत्यंत प्रेम था l संयोगवश दोनों ने साथ -साथ पुत्र को जन्म दिया l महर्षि दोनों पुत्रों में कोई भेद नहीं करते थे , लेकिन एक दिन महर्षि ने इतरा के पुत्र ऐतरेय को यज्ञशाला में आने से रोक दिया , जबकि श्लेषा के पुत्र को आने दिया l उसको ऐसा लगा कि जाति भिन्नता के कारण मुझसे भेद रखा गया l उसने अपनी माँ से पूछा --- " अब मैं यज्ञ कहाँ करूँ ? " माँ बोली --- "पुत्र ! तू अपनी आत्मा को गुरु मान और धरती को यज्ञ स्थल मानकर अपनी उपासना साधना आरम्भ कर l " बालक ने माँ के बताए मार्ग का अनुसरण किया और साधना कर योगी बन गया l जब वह घर लौटा तो दोनों ही माताओं ने उसका स्वागत किया l उसके पिता ने उसके द्वारा रचित पांडुलिपियों को देखा तो उसे ह्रदय से लगा लिया l वे पांडुलिपियाँ वेदों की विशुद्धतम व्याख्या थीं , जो ऐतरेय ब्राह्मण के नाम से प्रसिद्ध हुईं l ऐतरेय की इस उपलब्धि ने सिद्ध कर दिया कि व्यक्ति जन्म से नहीं कर्म से ब्राह्मण बनता है l
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