पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं --- " ईर्ष्या मानवीय स्वभाव की विकृति है l ईर्ष्यात्मक जीवन की यात्रा अधूरी सी होती है , जिसमे जो मिलता है , उसकी कद्र नहीं होती और जो नहीं मिल पाता उसका विलाप चलता रहता है l इसलिए जरुरी यह है कि दूसरों की ओर न देखकर अपनी ओर देखा जाये , क्योंकि हर इनसान अपने आप में औरों से भिन्न है , विशेष है , उसकी जगह कोई नहीं ले सकता और न ही उसकी पूर्ति कोई कर सकता है l " आचार्य श्री आगे लिखते हैं --- " ईर्ष्या तभी हमारे मन में प्रवेश करती है , जब हमारी तुलनात्मक द्रष्टि होती है और हम उसमें खरे नहीं उतरते l इसलिए यदि तुलना ही करनी है तो अपने ही प्रयासों में करनी चाहिए कि हम पहले से बेहतर हैं या नहीं , तभी ईर्ष्या रूपी विष बीज को पनपने से रोका जा सकता है और इसका समूल नाश किया जा सकता है l " अमेरिका के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डॉ . लेपार्ड ने लिखा है ---- " किसी की सफलता से ईर्ष्या करना अपने आपको संकुचित कर के सोचना है क्योंकि एक व्यक्ति कभी भी किसी दूसरे की सफलता पर डाका नहीं डाल सकता और न ही किसी अन्य तरीके से उसे छीन सकता है l सफलता यदि सच में प्राप्त करनी है तो उसके लिए ईर्ष्या की नहीं अथक प्रयास की जरुरत है l ' ईर्ष्यालु व्यक्ति कभी भी अपने जीवन से संतुष्ट नहीं होता l वह अपने जीवन की बहुमूल्य ऊर्जा को दूसरों को नीचा दिखाने के प्रयासों में ही गँवा देता है l ईर्ष्या एक आग है जिसमें ईर्ष्यालु व्यक्ति निरंतर जलता रहता है l इसलिए आचार्य श्री लिखते हैं ---- ' जीवन जीना एक कला है l यदि ईर्ष्या के बिना हमने जीवन जीना सीख लिया तो हमारी जिन्दगी बहुत आसान और आशा से परिपूर्ण हो जाएगी l
No comments:
Post a Comment