संसार में अनेक धर्म और अनेक जातियाँ हैं , इन सभी में अनेक रूढ़िवादी परम्पराएँ और अन्धविश्वास हैं l रूढ़िवादिता में जकड़ा व्यक्ति सबसे पहले अपना और अपने परिवार का ही अहित करता है , वक्त के साथ बदलना नहीं चाहता l ऐसी रूढ़िवादी विचारधारा के साथ जब अहंकार भी जुड़ जाए तब स्थिति और भी विकट हो जाती है l आचार्य श्री लिखते हैं ---- यदि मान्यता उचित है तो उसे करने में कोई परहेज नहीं है लेकिन यदि वह असंगत और अनुचित है तो भले ही वह सदियों से क्यों न चली आ रही हो , उससे परहेज करना ही श्रेयस्कर है , परन्तु इसे करने में विवेक के साथ साहस की भी आवश्यकता है l हमें उचित का वरण करना चाहिए और दुराग्रही मान्यताओं को द्रढ़ता के साथ त्याग देना चाहिए l ' भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी बाल -लीला के माध्यम से बताया कि हमें परंपराओं और परिपाटियों में बंधना नहीं चाहिए l ईश्वर चाहते हैं कि हम उन बेड़ियों से निकलें और विवेक व साहस का वरण करें l ----------- ' नंदबाबा इंद्र यज्ञ की तैयारी कर रहे थे l सभी गोप उसी में लगे थे l श्रीकृष्ण ने नंदबाबा से पूछा ---" यह आप क्या कर रहे हैं ? यह शास्त्र सम्मत है या लौकिक ? ' नंदबाबा बोले ---- " बेटा ! इंद्र मेघों के स्वामी हैं l उन्हें प्रसन्न करने के लिए हम यज्ञ करते हैं l यह क्रम हमारी कुल परंपरा से चला आया है l " श्रीकृष्ण बोले ---- " पिताजी ! यह त्रिविध जगत ईश्वर की स्रष्टि है , उसी की प्रेरणा से मेघ जल बरसाते हैं l इसमें भला इंद्र का क्या लेना -देना ! हम तो सदा वनवासी हैं l हम गौ व गिरिराज का भजन करें l गिरिराज को भोग लगाया जाए व उनकी प्रदक्षिणा की जाए l " नंदबाबा ने वही किया जो उनके लाड़ले पुत्र ने उन्हें विद्वतापूर्ण ढंग से समझाया l स्वर्ग के राजा इंद्र का अहंकार अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुका था , उस पर चोट पहुंची तो उन्होंने मेघों से कहा ---" ब्रज पर जल की अनंत राशि बरसाओ , वहां जल प्रलय आ जाए l " भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी योगमाया से जल प्रलय से ओत -प्रोत व्रज की रक्षा गोवर्धन धारण कर की l इंद्र का अहंकार चूर -चूर हो गया l ईश्वर अवतार लेकर अपनी लीलाओं से मानव जाति को प्रेरणा देने , उसे जीवन जीने की कला सिखाने और अपनी चेतना को विकसित करने की प्रेरणा देने के लिए ही इस धरती पर आते हैं l
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