छत्रपति शिवाजी अपने गुरु समर्थ गुरु रामदास को आनंद में निमग्न देखा तो उनका मन हुआ कि राज्य , शासन और अन्य परेशान करने वाले दायित्वों से छुटकारा पा लिया जाए l इसलिए जब एक दिन समर्थ गुरु का आगमन हुआ तो शिवाजी ने उनसे कहा --- " गुरुदेव ! मैं राज्य के इन झंझटों से परेशान हो गया हूँ l नित्य प्रति नई उलझनें , इसलिए मैं संन्यास लेने की सोच रहा हूँ l " गुरुदेव बोले --- " हाँ , ठीक है l संन्यास ले लो , इससे अच्छा और क्या हो सकता है l " शिवाजी प्रसन्न हो गए और बोले --- " आप कोई ऐसा व्यक्ति बताइए , जिसे मैं राज्य सौंप सकूँ l " समर्थ बोले --- " मुझे राज्य दे दे और निश्चिन्त होकर वन में चला जा ! " शिवाजी ने हाथ में जल लेकर राज्य दान का संकल्प कर लिया और वन को जाने लगे l उन्होंने दैनिक दिनचर्या के कुछ सामान ले जाना चाहा तो समर्थ बोले ---- " तुम राज्य दान कर चुके हो , तुम्हारा उस पर कोई अधिकार नहीं l तब शिवाजी खाली हाथ ही जाने लगे तो समर्थ बोले ---- " दिनचर्या के लिए साधनों की आवश्यकता पड़ेगी , वो कहाँ से लाओगे ? " शिवाजी ने उत्तर दिया ---- " कहीं नौकरी कर लूँगा , उन्ही पैसों से व्यवस्था बना लूँगा l " समर्थ ने हँसते हुए कहा --- " राज्य तो तुम मुझे दे ही चुके हो , अब तुम्हे नौकरी करनी है तो मेरे सेवक बनकर इस राज्य का सञ्चालन करो l यह राज -काज ही तुम्हारी नौकरी है l " इसके उपरांत छत्रपति शिवाजी को राज्य करने में कभी कोई तनाव अनुभव नहीं हुआ l सत्य यही है कि मनुष्य कार्य करने से नहीं , वरन उसे बोझ समझकर करने से तनावग्रस्त होता है , कार्य को प्रसन्नतापूर्वक , दायित्व रूप में करने से मन निष्कलुष और तनावमुक्त रहता है l
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