पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " मानवीय संबंधों का आधार भावनाएं हैं l भावनात्मक तृप्ति मानव जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है l लेकिन आज का सबसे बड़ा दुर्भिक्ष भावनाओं के क्षेत्र का है l सब कुछ पाकर भी मनुष्य अतृप्त ही बना रहता है l इसी के कारण जीवन के प्रत्येक स्तर पर समस्याएं उत्पन्न हुई हैं l रिश्तों में अपनापन होने का मतलब है --- भावनाओं के तल पर जीना , जिसमें गहरी तृप्ति और शांति मिलती है l लेकिन आज के युग में भावनाओं का अकाल है इस कारण जीवन में तनाव और आंतरिक खालीपन है l " एक प्रसंग है ---- दो संन्यासी एक आलीशान कोठी के पास से गुजर रहे थे कि उन्हें बहुत जोर -जोर से पति -पत्नी के झगड़ने की आवाज सुनाई दी l उस ओर ध्यान दिया तो देखा कि वे दोनों पास -पास ही खड़े हैं लेकिन बहुत ही ऊँची आवाज में , चीख -चिल्लाकर विवाद कर रहे हैं l आवाज कोठी के बाहर तक आ रही है l नौकर -चाकर आदि लोगों के लिए यह सामान्य , आए दिन की बात थी l l एक संन्यासी ने अपने से बुजुर्ग संन्यासी से पूछा --- " ये दोनों इतने पास -पास हैं फिर इतनी ऊँची आवाज में क्यों बात कर रहे हैं ? " बुजुर्ग संन्यासी बोले ---- " भावनात्मक अलगाव , एक साथ रहने वालों के बीच भारी अंतर व दूरी बना देता है , सबके बीच एक दीवार खड़ी कर देता है l पास होकर भी जब भावनाएं जुड़ती -मिलती नहीं हैं तो दूरी का एहसास होता है और इस दूरी के कारण ये दोनों इतनी जोर -जोर से बोल रहे हैं l " संन्यासी ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा --- " यदि एक =दूसरे की भावनाओं की समझ पैदा हो जाए , भाव गहरे हों तो फुसफुसाहट भी अच्छे से समझ में आ जाती है और भाव न हों तो ऊँची आवाज भी सुनाई नहीं देती है l " आचार्य श्री लिखते हैं ---- " मनोरोग और कुछ नहीं , मनुष्य की दबी , कुचली , रौंदी गई भावनाएं ही हैं l सकारात्मक भावनाओं की प्राप्ति से ही इन रोगों का निराकरण हो सकता है l जीवन की आंतरिक नीरसता और खोखलेपन को दूर करना है तो परमार्थ को , निष्काम कर्म को अपनी दिनचर्या में सम्मिलित करना होगा , इससे ही हमारे अंदर के विकार दूर होंगे जो संबंधों में कडुआहट पैदा करते हैं , जीवन का खालीपन दूर होगा और जीवन में आंतरिक ख़ुशी व संतुष्टि महसूस होगी l "
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