पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " प्रतिद्वंदी को पछाड़ो मत l अपनी महानता का परिचय देकर उसे क्षुद्र बनने दो l जीवन एक अवसर है , जिसे यदि गँवा दिया जाये तो हाथ से सब कुछ चला जाता है और यदि उसका सही उपयोग कर लिया जाये तो प्रगति के चरम शिखर पर पहुंचा जा सकता है l " यदि ईश्वर की कृपा से किसी के पास सद्बुद्धि है , विवेक है तो वह अपने अपमान का बदला लेने के लिए उससे विवाद , झगडा , लड़ाई , युद्ध आदि करने में अपनी ऊर्जा को बर्बाद नहीं करता l वह अपना समय और अपनी ऊर्जा को स्वयं को ऊँचा उठाने में लगाता है जिससे प्रतिद्वंदी स्वत: ही पराजित हो जाता है l ----- एक प्रसंग है ----- मरण शैया पर पड़े पिता ने अपने पुत्र बैजू से कहा ---- ' संगीत के दर्प में तानसेन ने मेरा अपमान किया , तू उससे बदला अवश्य लेना l " अपने पिता की अंतिम इच्छा को पूरा करने के लिए बैजू अँधेरी रात में हाथ में परशु लेकर तानसेन के महल में पहुंचा l उसने दरवाजे की झिरझिरी से झांककर देखा कि देवी सरस्वती की प्रतिमा के आगे बैठ वे अध्ययन कर रहे थे l आशीर्वाद देती हुईं देवी की शांत मुद्रा की प्रतिमा को देखकर बैजू सोचने लगा ---- " ऐसा प्रतिशोध किस काम का जिसमे अपना पतन हो जाये l वह देवी से प्रार्थना करने लगा कि 'माँ मुझे सद्बुद्धि दो l ' अब वह वापस लौट आया और अपनी संगीत साधना के आधार पर प्रतिशोध लेने का विचार करने लगा l अपनी वीणा और वाद्य यंत्रों को लेकर वह दिन -रात साधना में लीन रहता , उसे खाने -पीने की भी सुध नहीं थी l प्रतिशोध की भावना नष्ट हो चुकी थी बैजू की ख्याति फैलने लगी और अकबर के कानों तक पहुंची l l अकबर उसका संगीत सुनने उसकी झोंपड़ी में पहुंचे और उसका संगीत सुनकर मन्त्र -मुग्ध हो गए , उन्होंने तानसेन की ओर देखा , तो तानसेन ने अपनी पराजय को स्वीकार किया और कहा --- " जहाँपनाह ! मैं आपको खुश करने के लिए गाता हूँ और बैजू ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए गाता है l जो अंतर ईश्वर और आप में है , वही अंतर बैजू और मुझ में है l " बैजू का प्रतिशोध सकारात्मक दिशा में पूरा हुआ , उसकी अनवरत साधना के कारण संसार ने उसे बैजू बावरा के नाम से जाना l
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