पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " जीवन निर्वाह के लिए दूसरों के सहारे रहना पराधीनता है l इसी तरह मन और बुद्धि को ताला लगाकर किसी बात को , किसी विचार को मान लेना भी मानसिक पराधीनता है , विचारों की गुलामी है l " विचारों की यह गुलामी हर युग में रही है l जिसने अपने को इस गुलामी से मुक्त किया , वही स्वतंत्र है l जो निर्भय है , विशेष रूप से जिसे मृत्यु का भी भय नहीं है , वही आज़ादी का आनंद उठा सकता है l हमारे धर्म ग्रन्थ हमें जीवन जीने की कला सिखाते हैं l रावण का आतंक दसों दिशाओं में था l उसने काल को भी बंदी बना लिया था l वह अत्यंत शक्तिशाली और महान तांत्रिक व मायावी था l उसकी शक्ति से सब थर -थर कांपते थे , उसकी हर बात को आँख बंद कर स्वीकार करते थे लेकिन उसके भाई विभीषण ने उसे कई बार समझाया कि उसकी राह गलत है , वह शक्ति का दुरूपयोग कर रहा है l जब उसने भरी सभा में रावण से कहा कि माँ सीता साक्षात् भगवती हैं , भगवान राम से वैर नहीं लो l तब रावण ने विभीषण को भला -बुरा कहा और लात मारकर सभा से निकाल दिया l विभीषण ईश्वर विश्वासी था , उसे विश्वास था कि हमारी साँसे ईश्वर की दी हुई है , रावण अपनी ताकत से ईश्वर के विधान को नहीं बदल सकता l उसने उसी पल सोने की लंका को त्याग दिया और भगवान श्रीराम की शरण में चला गया l ईश्वर की शरण में जाने का क्या फायदा हुआ ? यह इस संसार अपने स्वार्थ और सिर्फ अपने ही लाभ को देखने वालों को समझना चाहिए l भगवान ने विभीषण को सोने की लंका का राजा बना दिया और कहते हैं मृत्यु से न डरने वाले विभीषण को भगवान ने अमर कर दिया l इस कलियुग में विभिन्न परिवारों में , संस्थाओं में और समूचे संसार में अपने धन और शक्ति के अहंकार में हर शक्तिशाली अत्याचार और अन्याय करता है और उसे सही सिद्ध करने के लिए विभीषण को ' घर का भेदी ' कहता है लेकिन सत्य तो यह है कि असुर कुल में पैदा होकर भी वह सन्मार्ग पर था , अत्याचार और अन्याय के खिलाफ खड़े होने की उसमें हिम्मत थी और साथ ही उसे तरीका भी पता था l वह जानता था कि रावण से सीधे मुकाबला संभव नहीं है इसलिए वह ईश्वर के शरणागत हुआ , अपने जीवन की बागडोर भगवान के हाथों में सौंप दी l भगवान ने उसकी नैया पार लगा दी l इसी तरह अर्जुन ने अपने जीवन रूपी रथ की बागडोर भगवान श्रीकृष्ण को सौंप दी l भगवान ने उसे हर खतरे से बचाया और पांडव विजयी हुए l
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