पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " मनुष्य के पतन का कारण उसका अहंकार है l संयम से स्वर्ग जीते जाते हैं लेकिन संयमी और पराक्रमी होने के साथ उसे निरहंकारी भी होना चाहिए l ' आचार्य श्री लिखते हैं ---- ' ज्ञानी जब अहंकारी हो जाता है , तब उसके अंत: करण से करुणा नष्ट हो जाती है l उस स्थिति में वह औरों का मार्गदर्शन नहीं कर सकता , केवल मात्र दंभ प्रदर्शन कर सकता है l जिससे लोग प्रकाश लेने की अपेक्षा पतित होने लगते हैं l " पुराण की एक कथा है ----- देवता और असुरों में घोर संग्राम हो रहा था l असुरों की शक्ति के आगे देवता टिक नहीं पा रहे थे l तब प्रजापति ब्रह्मा ने मृत्यु लोक यानि इस पृथ्वी के एक मनुष्य महाराज मुचुकुन्द को सेनापति बनाया , उन्हें देव सेना के संचालन का कार्यभार सौंपा l प्रजापति ब्रह्मा का कहना था --- ' संयमी और सदाचारी व्यक्ति मनुष्य तो क्या , देव , दानव सभी को परस्त कर सकता है l देवता भोग -विलास और असंयम में डूबकर अपनी सामर्थ्य नष्ट कर रहे हैं जबकि महाराज मुचुकुन्द ने मनुष्य होते हुए भी संयम और पराक्रम में देवताओं को पीछे छोड़ दिया है l ' अत" प्रजापति ब्रह्मा के आदेशानुसार महाराज मुचुकुन्द सेनापति थे l एक महीने तक देवता और असुरों के बीच घनघोर युद्ध हुआ l मुचुकुन्द के पराक्रम के आगे असुरों की एक न चली l सारे संसार में महाराज मुचुकुन्द के शौर्य , संयम , पराक्रम और इन्द्रिय विजय की प्रशंसा के स्वर गूंज रहे थे l अपनी प्रशंसा सुनते -सुनते मुचुकुन्द के मन में अहंकार बढ़ने लगा , अब उनके पराक्रम में वो चमक नहीं दिखाई दे रही थी , अब अहंकारवश सुरा और सुंदरियों में उनकी शक्ति नष्ट हो रही थी l असुरों का पलड़ा फिर से भारी हो रहा था l प्रजापति ब्रह्मा ने मुचुकुन्द के ह्रदय में पनपने वाले इस अहंकार के विष -बीज को देख लिया l उन्होंने देवराज इंद्र को बुलाकर सब समझाया और कहा --- तुम अतिशीघ्र स्वामी कार्तिकेय को सैन्य -संचालन के लिए ससम्मान राजी कर लो l असुरों ने मुचुकुन्द को बंदी बनाकर पृथ्वी पर जा पटका , तब उन्हें अपनी भूल का पता चला l प्रजापति ब्रह्मा उनके पास पहुंचे और कहा ---- ' तुम्हारी साधना अधूरी रह गई , यह उसी का फल है l अब तुम फिर से शक्ति की साधना करो लेकिन ध्यान रखना इस बार अहंकार बिलकुल भी न रहे l '
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