महाराज जीमकेतु धार्मिक प्रवृत्ति के शासक थे l दुर्भाग्यवश उनके मन में उनकी अकूत संपत्ति का अहंकार पैदा हो गया l ऋषि दत्तात्रेय को उनके ऊपर दया आ गई और उन्होंने उन्हें सत्य का मार्ग दिखाने का निश्चय किया l वे एक पागल का वेश धारण कर राजा के महल पहुंचे और उनके सिंहासन पर जाकर बैठ गए l राजा जीमकेतु दरबार में पहुंचे तो एक पागल को सिंहासन पर बैठा देखकर क्रोधित हो उठे और बोले ---- " तू कौन है ? हमारे राजदरबार में आने का तेरा साहस कैसे हुआ ? " दत्तात्रेय बोले --- " बंधु ! क्रोधित क्यों होते हो ? यह तो धर्मशाला है l इसमें तुम भी ठहरो और मैं भी ठहरूंगा l " राजा बोले --- " अरे , तू अँधा है क्या ? यह धर्मशाला नहीं राजमहल है l " ऋषि दत्तात्रेय ने कहा --- ' क्या तुम इसमें अनंत काल से रहते चले आ रहे हो ? " राजा ने कहा ---- " नहीं , मैं पिछले तीस वर्षों से यहाँ का राजा हूँ l " दत्तात्रेय ने पूछा ---- " तुमसे पहले कौन यहाँ का राजा था ? " राजा बोले ---- " मुझसे पहले मेरे पिता यहाँ के राजा थे l " दत्तात्रेय ने पूछा --- " और उनसे पहले कौन यहाँ का राजा था ? " राजा बोले --- " तब मेरे दादा -परदादा यहाँ राज्य करते थे l " ऋषि दत्तात्रेय बोले --- "जहाँ कोई आकर थोड़े समय ठहरकर चला जाता है , तो वह धर्मशाला ही कहलाती है l उसे अपनी पुश्तैनी जागीर समझ लेना मूर्खता के सिवा और कुछ भी नहीं है l " l यह सुनकर राजा का अहंकार तुरंत ही विगलित हो गया l
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