पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- 'मानव मन की स्थिति ऐसी है कि अनेक बातें जानने , सुनने और समझने के बावजूद वह वही करता है , जिधर उसके संस्कार खींचते हैं , जिसके लिए उसकी वृत्तियाँ उसे वशीभूत करती हैं l मन में संसार की आसक्ति और कर्म बंधन ऐसे होते हैं कि वह इन जटिल संस्कारों से मुक्त नहीं हो पाता l प्रवचन , पुस्तकें सब मन को समझाने में नाकाम रहती हैं l ' अपने संस्कारों के वशीभूत होकर व्यक्ति छल , कपट , षड्यंत्र करता है , धोखा देता है और अपने किए जाने वाले हर कार्य को सही साबित करने के लिए अनगिनत तर्क भी देता है l कहते हैं अच्छी संगत हो तो व्यक्ति का कल्याण होता है लेकिन यदि संस्कार जटिल हों , कुटिल हों तो श्रेष्ठ संगत का भी कुछ असर नहीं होता l महाभारत में दुर्योधन का चरित्र ऐसा ही था l दुर्योधन को पितामह भीष्म , गुरु द्रोणाचार्य और कुलगुरु कृपाचार्य का संरक्षण मिला लेकिन इस संगत का उस पर कुछ असर नहीं हुआ , उसे तो कुटिल , कुमार्गगामी शकुनि ही पसंद आया l जब व्यक्ति के संस्कार ही षड्यंत्र और धोखा देने के होते हैं तब साक्षात् भगवान भी समझाने आएं , तो व्यक्ति समझता नहीं है l भगवान श्रीकृष्ण स्वयं दुर्योधन को समझाने गए कि तुम पांडवों को केवल पांच गाँव दे दो , हिंसा और युद्ध के उत्तरदायी न बनो l लेकिन दुर्योधन नहीं माना और कहने लगा --- धर्म को मैं भी जानता हूँ लेकिन धर्म में मेरी कोई प्रवृत्ति नहीं है l जिसे आप अधर्म कहते हैं , उसे भी मैं जानता हूँ लेकिन उसे मैं छोड़ नहीं सकता l भगवान की बात को समझना तो बहुत दूर की बात , वह उन्हें ही बन्दी बनाने चला l इस प्रसंग से यही स्पष्ट होता है कि कुसंस्कार इतने जटिल होते हैं उनमें परिवर्तन और सुधार संभव नहीं होता l इसलिए यदि जीवन में हमारा पाला ऐसे लोगों से पड़े जो धोखा देते हैं , हमारे विरुद्ध छल , कपट और षड्यंत्र रचते हैं तो यथासंभव उनका सामना अवश्य करें लेकिन अपने मन पर बोझ न आने दें क्योंकि उनके संस्कार ही ऐसे हैं वे ऐसे अनैतिक कार्य करने से कभी नहीं चूकेंगे , कभी नहीं सुधरेंगे l दुर्योधन तो वीर था , युद्ध में वीरगति प्राप्त हुई तो उसे स्वर्ग मिला लेकिन तृष्णा , कामना और वासना में डूबा प्राणी जन्म -जन्मान्तर तक कर्म -बन्धनों में उलझकर भटकता ही रहता है l
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