आचार्य श्री लिखते हैं ---- ' इनसान जीवन भर श्रेष्ठ कर्म कर के पुण्य अर्जित करता है और जब इस पुण्य का भोग करने के लिए उसे मान - सम्मान एवं पद - प्रतिष्ठा मिलती है तो उसके अंदर इसे और पाने की लालसा जगती है l इस लालसा - लोभ में इनसान इतना क्रूर एवं निष्ठुर व संवेदनहीन हो जाता है कि वह अनेकों की पीड़ा को भूल जाता है l वह सुख पाने की लालसा में अनेकों का सुख छीन लेता है l उसके इस सुख में जाने कितनों के अरमान दफन हो जाते हैं l
आचार्य श्री लिखते हैं ---- ' इस लालसा - लोभ में वह बहुत कुछ ऐसा कर गुजरता है , जिसे करने में सर्वदा परहेज करना चाहिए , अन्यथा परिणामस्वरूप वह सुखभोग के फेर में फिर से एक नया भोग बना लेता है , जो कालांतर में पाप के रूप में फलित होता है l '
आचार्य श्री के ये वचन सुख - वैभव संपन्न , पद - प्रतिष्ठित लोगों की चेतना जगाने के लिए हैं l उन्हें जागरूक करने के लिए हैं कि कहीं अपने सुख - वैभव को चिरस्थायी बनाने के लिए वे गरीबों और बेसहारों पर जुल्म तो नहीं कर रहे ? हानिकारक और जानलेवा व्यवसायों से बहुत लाभ कमाने के लिए लोगों के जीवन में अमिट दुःख तो नहीं दे रहे ?
आचार्य श्री लिखते हैं ---- ' इस लालसा - लोभ में वह बहुत कुछ ऐसा कर गुजरता है , जिसे करने में सर्वदा परहेज करना चाहिए , अन्यथा परिणामस्वरूप वह सुखभोग के फेर में फिर से एक नया भोग बना लेता है , जो कालांतर में पाप के रूप में फलित होता है l '
आचार्य श्री के ये वचन सुख - वैभव संपन्न , पद - प्रतिष्ठित लोगों की चेतना जगाने के लिए हैं l उन्हें जागरूक करने के लिए हैं कि कहीं अपने सुख - वैभव को चिरस्थायी बनाने के लिए वे गरीबों और बेसहारों पर जुल्म तो नहीं कर रहे ? हानिकारक और जानलेवा व्यवसायों से बहुत लाभ कमाने के लिए लोगों के जीवन में अमिट दुःख तो नहीं दे रहे ?
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