महाभारत का महायुद्ध शुरू होने से पहले अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही भगवान श्रीकृष्ण के पास मदद की इच्छा से गए l भगवान ने कहा --- एक तरफ मेरी विशाल सेना है और दूसरी तरफ मैं नि:शस्त्र , युद्ध में शस्त्र नहीं उठाऊंगा l दुर्योधन ने विशाल सेना को चुना और अर्जुन ने भगवान से भगवान को ही मांग लिया l श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने l अर्जुन ने अपने जीवन की बागडोर भगवान के हाथों में सौंप दी , स्वयं को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर दिया l यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि यह समर्पण कर्तव्यपालन के साथ था l आखिरी साँस तक कर्तव्यपालन करना है तभी ईश्वर की कृपा मिलेगी , आलस या पलायन नहीं चलेगा l जब अर्जुन ने युद्ध के मैदान में अपने ही भाई -बंधुओं , गुरु , पितामह को देखा तो अपने अस्त्र -शस्त्र नीचे रख दिए , तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसे गीता का उपदेश दिया , कर्तव्यपालन के लिए प्रेरित किया l जब भीष्म पितामह के साथ युद्ध में अर्जुन उस वीरता से नहीं वार कर रहा था , उसके मन में यही था कि ' पितामह हैं , मुझे बचपन में गोदी में खिलाया है ' l कृष्ण जी बार -बार समझा रहे थे कि पितामह अधर्म और अन्याय के साथ है , और इस अन्याय का अंत करने के लिए ही यह महायुद्ध है , पितामह के वार से निर्दोष सैनिक मरते जा रहे हैं , तुम वीरता से वार करो l लेकिन ऐसा करने के लिए अर्जुन स्वयं को असमर्थ महसूस कर रहा था तब अर्जुन को कर्तव्यपालन से विमुख होते देख भगवान श्रीकृष्ण को बहुत क्रोध आया , वे रथ से कूद पड़े और एक टूटे हुए रथ का पहिया लेकर भीष्म पितामह को मारने दौड़े l सारी सेना में खलबली मच गई , पितामह तो भगवान की स्तुति करने लगे कि ऐसा सौभाग्य फिर कहाँ मिलेगा l अर्जुन ने दौड़कर भगवान के पैर पकड़ लिए और क्षमा मांगी कि मेरी वजह से आप अपनी नि:शस्त्र रहने की प्रतिज्ञा न तोड़ें l फिर अर्जुन ने जिस वीरता से युद्ध लड़ा कि पांडव विजयी हुए l आज के युग में ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन तो संभव नहीं हैं लेकिन यह प्रसंग इस बात को स्पष्ट करता है कि ईमानदारी से कर्तव्यपालन कर के ईश्वर को , उनकी कृपा को अनुभव किया जा सकता है l कलियुग की सबसे बड़ी व्यथा यही है कि बेईमानी , भ्रष्टाचार , लालच , तृष्णा , कामना ---- लोगों को नस -नस में समा गया है इसलिए कर्तव्यपालन को भी लोग अपने -अपने ढंग से , अपने संस्कार और मन: स्थिति के अनुसार ही समझते हैं l इसलिए ईश्वर अब केवल कर्मकांड तक कोरी कल्पना हैं , अब मनुष्य स्वयं को ही भगवान समझने लगा है l मनुष्य के इस भ्रम को प्रकृति अपने ढंग से तोड़ देती है और मनुष्य समझ भी जाता है कि भगवान का तीसरा नेत्र खुल गया लेकिन फिर भी वो सुधरता नहीं है l
31 March 2024
30 March 2024
WISDOM -----
1 चीन के प्रसिद्ध दार्शनिक लाओत्से ने अपने शिष्य से कहा --- " तुम्हे पता है कि मैं अपने जीवन में कभी किसी से पराजित नहीं हुआ l " शिष्य को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ और बोला --- " पर आप तो बहुत छोटे व दुर्बल शरीर के हैं l ऐसे में आपको कैसे कभी किसी ने नहीं हराया ? " लाओत्से हँसा और बोले --- "मैंने कभी जीतने की चाहत ही नहीं रखी l इसीलिए हारने का भी प्रश्न ही उत्पन्न नहीं हुआ l संसार में सारी दौड़ पाने की है l इसलिए लोग खोने की सोच से परेशान हो जाते हैं , परन्तु जो भगवान ने दिया है यदि उसी से संतुष्ट है तो उसके मन को कोई चिंता परेशान नहीं करती और न कोई बेचैनी होती l " शिष्य की समझ में आ गया कि अतृप्त कामनाएँ ही समस्त दुःखों का कारण हैं l आज संसार में ' तनाव ' सबसे बड़ी बीमारी है जो अन्य कई बीमारियों को पैदा करती है l इसका कारण यही है व्यक्ति कुछ न कुछ पाने की चाह में दौड़ रहा है और यह दौड़ भी सीधी नहीं है , दूसरों को धक्का मार के , कुचल कर आगे बढ़ने की है l इस तरह की दौड़ में व्यक्ति स्वयं तो तनावग्रस्त होता है इसके साथ ही दूसरों को धक्का देने और उनका हक छीन लेने का पाप भी अपने सिर पर रख लेता है , अपने ही कर्मों के बोझ से दबा जाता है l
29 March 2024
WISDOM -----
पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " हमारे पूर्वजों ने छूत -अछूत का भेद , अच्छे -बुरे कर्मों के आधार पर बनाया था l जन्म से कोई छूत -अछूत नहीं होता l " उच्च कुल में जन्म लेकर भी यदि व्यक्ति छल , कपट , धोखा , षडयंत्र , अत्याचार और नकारात्मक शक्तियों के साथ काम करता है तो वह व्यक्ति अछूत है , ऐसे व्यक्ति की छाया से भी बचना चाहिए क्योंकि ऐसे लोगों के संस्कार , उनकी मानसिकता दूषित होती है इसलिए उनकी संगत से बचना चाहिए l एक कथा है -------- एक महात्मा प्रतिदिन जेल जाते और एक बंदी को उपनिषद पढ़ाया करते l वह बंदी काल कोठरी में था लेकिन उपनिषद का ज्ञान उसकी आत्मा में ऐसे समा गया कि उसके जीवन में आनंद और शांति थी l महात्मा उसे नियमपूर्वक उपनिषद पढ़ाने जाते थे l एक दिन महात्मा ने देखा कि उनके शिष्य के चहरे पर प्रसन्नता नहीं है l महात्मा ने उससे पूछा कि उपनिषद पढ़कर भी मन में शांति क्यों नहीं है ? तब बंदी ने कहा कि उसने रात्रि में एक भयानक स्वप्न देखा , जिसमें वह निर्ममता से अपने किसी प्रिय की हत्या कर रहा है l बंदी ने कहा कि इस स्वप्न की वजह से ही वह बहुत परेशान है l तब महात्मा जी ने उससे उसकी पूरी दिनचर्या के बारे में पूछा कि वह किस से मिला था , क्या खाया था ? फिर महात्मा जी ने बंदीगृह के अधिकारी से पूछा ---- " क्या कल किसी नए बंदी ने भोजन पकाया था ? " अधिकारी ने कहा --' हाँ ' और उस बंदी का रिकार्ड मंगाकर देखा तो पता चला कि उस बंदी ने जिसने खाना बनाया था , उसने अपने प्रिय की हत्या उसी निर्ममता से की थी जैसा कि उस उपनिषद पढने वाले बंदी ने स्वप्न में देखा था l तब महात्मा ने अपने शिष्य को कहा --- ' व्यक्ति के दूषित मानसिक संस्कार के स्पर्श मात्र से उस भोजन में वह दूषित संस्कार आ गए l उस भोजन को ग्रहण करने से ही उसे ऐसा स्वप्न आया l तब महात्मा जी की सलाह पर उस बंदी को खाना बनाने के काम से हटाकर अन्य कोई काम दिया गया l
28 March 2024
WISDOM -------
पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने अपने वाडमय ' प्रेरणाप्रद द्रष्टान्त ' में लघु -कथाओं के माध्यम से हमें जीवन जीने की शिक्षा दी है l ----- एक राजा ने अपने राजकुमार को एक दूरदर्शी और विद्वान् आचार्य के पास शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजा l एक दिन आचार्य ने राजकुमार से पूछा ---' तुम अपने जीवन में क्या बनना चाहते हो ? यह बताओ तब तुम्हारा शिक्षा क्रम ठीक बनेगा l राजकुमार ने उत्तर दिया --- ' वीर योद्धा l ' आचार्य ने समझाया कि इन दोनों शब्दों में अंतर है l योद्धा बनने के लिए शस्त्र कला का अभ्यास करो , घुड़सवारी सीखो किन्तु यदि वीर बनना हो तो नम्र बनो और सबसे मित्रवत व्यवहार करने की आदत डालो l जो वीर है वो कभी किसी की पीठ पर वार नहीं करता , कमजोर पर अत्याचार नहीं करता l सबसे मित्रता करने की बात राजकुमार को जंची नहीं और वह असंतुष्ट होकर अपने महल वापस आ गया l पिता ने लौटने का कारण पूछा तो उसने मन की बात बता दी , सबसे मित्रता बरतना भी कोई नीति है l राजा ने उस समय तो अपने पुत्र से कुछ नहीं कहा l कुछ दिन बाद राजा अपने पुत्र के साथ जंगल में वन -विहार को गया l चलते चलते शाम हो गई , राजा को ठोकर लगी तो बहुमूल्य अंगूठी में जड़ा बेशकीमती हीरा उस पथरीली रेत में गिर गया l अँधेरा होने लगा , जंगल पार करना था l राजकुमार ने जहाँ हीरा गिरा था वहां की सारी रेत अपनी पगड़ी खोलकर उसमे बाँध ली l और भयानक जंगल को जल्दी पार करने को कहा l राजा ने पूछा --- 'हीरा तो छोटा सा था , उसके लिए इतनी सारी रेत समेटने की क्या जरुरत ? राजकुमार ने कहा --- जब हीरा अलग से नहीं मिला तो यही उपाय था कि उस जगह की सारी रेत समेट ली जाये और घर पहुंचकर सुविधानुसार हीरा ढूँढ लिया जाये l राजा ने पूछा --- फिर आचार्य जी का यह कहना कैसे गलत हो गया कि सबसे मित्रता का अभ्यास करो l मित्रता का दायरा बड़ा होने से ही उसमें से हीरे जैसे विश्वासपात्र मित्र ढूंढना संभव होगा l राजकुमार का समाधान हो गया और वह फिर से उन विद्वान् गुरु के आश्रम में पढ़ने चला गया l इस कथा से हमें यही शिक्षा मिलती है कि हमारा मनुष्य जीवन भी हीरे के समान अनमोल है उसे व्यर्थ न गंवाए l यदि इस सफ़र में कभी गिर भी गए तो हिम्मत न हारें , पुन: उठें , संभलें और जीवन को सार्थक करें और मित्र हमेशा जाँच -परखकर ही बनाएँ l
27 March 2024
WISDOM -----
पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----- " पद जितना बड़ा होता है , सामर्थ्य उतनी ही ज्यादा और दायित्व भी उतने ही गंभीर l जो ज्ञानी हैं वे अपनी बढ़ती हुई सामर्थ्य का उपयोग पीड़ितों के कष्ट हरने एवं भटकी मानवता को दिशा दिखाने में करते हैं l सामर्थ्य का गरिमापूर्ण एवं न्यायसंगत निर्वाह ही श्रेष्ठ मार्ग है l " ---------------------- बोधिसत्व सुंदर कमल के तालाब के पास बैठे वायु सेवन कर रहे थे l कमल की मनोहर छटा देखकर वे सरोवर में उतर गए और निकट जाकर कमल की गंध का पान कर तृप्त हो रहे थे l उसी समय किसी देवकन्या का स्वर उन्हें सुनाई दिया ------ ' तुम बिना कुछ दिए ही इन पुष्पों की सुरभि का सेवन कर रहे हो l ' बोधिसत्व कुछ कहते , उसी समय एक व्यक्ति आया और सरोवर में घुसकर निर्दयतापूर्वक कमल -पुष्प तोड़ने लगा l उसे रोकना तो दूर , देवकन्या ने उसे मना भी नहीं किया l बोधिसत्व ने उस देवकन्या से पूछा --- " देवी ! मैंने तो केवल पुष्पों का गंधपान ही किया था , पर अभी आए इस व्यक्ति ने कितनी निर्दयता के साथ पुष्पों को तोड़कर तालाब को असुंदर और अस्वच्छ बनाया , तब तो तुमने इसे कुछ भी नहीं कहा l " बोधिसत्व की बात सुनकर देवकन्या गंभीर होकर कहने लगी --- " तपस्वी ! लोभ तथा तृष्णा में डूबे संसारी मनुष्य धर्म , अधर्म में भेद नहीं कर पाते l अत: उन पर धर्म की रक्षा का भार नहीं है , किन्तु जो धर्मरत हैं , सत -असत का ज्ञाता है , नित्य अधिक से अधिक पवित्रता और महानता के लिए सतत प्रयत्नशील है , उनका तनिक सा भी पथभ्रष्ट होना एक बड़ा पातक बन जाता है l " बोधिसत्व ने मर्म को समझ लिया कि जिन पर धर्म -संस्कृति की रक्षा का भार होता है , समाज में सर्वोपरि पद पर रहने के कारण उनके दायित्व भी बढ़े -चढ़े होते हैं l अत: अधिक सजग होना उनके लिए एक अनिवार्य कर्तव्य है l
26 March 2024
WISDOM ----
लघु -कथा --- एक अत्याचारी राजा था , जो किसी से रुष्ट होने पर उसे बंदी बनाकर और अँधा कर के एक चौरासी कोस के जंगल में छोड़ देता था l उस जंगल के चारों ओर एक बड़ी व मजबूत दीवार बनी हुई थी l ज्यादातर लोग उस दीवार से सिर टकराकर मर जाते थे , पर उन्ही में से एक ऐसा ईश्वर भक्त था जिसे यह विश्वास था कि जिस ईश्वर ने यह स्रष्टि रची है , क्या उसके पास एक छोटे जंगल से निकलने का मार्ग नहीं होगा l इसी विश्वास के आधार पर वह रोज दीवार का सहारा लेकर गोल -गोल घूमा करता था और ऐसे ही एक दिन उसे दीवार के मध्य एक ऐसा छिद्र मिल गया जिससे बाहर निकला जा सकता था l इस प्रकार अपने निरंतर प्रयास और ईश्वर विश्वास ---इन दोनों के संयुक्त बल से वह बाहर निकलने में सफल हुआ l जीवन में सफलता के लिए निरंतर पूर्ण मनोयोग से प्रयास करने के साथ ईश्वर विश्वास भी जरुरी है , ईश्वर विश्वास से ही आत्मबल मिलता है l महाभारत में कर्ण युद्ध विद्या में अर्जुन से श्रेष्ठ था , महादानी और आत्म बल का धनी था , फिर भी अर्जुन से हार गया l ऐसा क्यों हुआ ? क्योंकि एक तो उसने अनीति और अधर्म का साथ दिया , अत्याचारी और अन्यायी जब डूबता है तो अपना साथ देने वाले सबको साथ लेकर डूबता है l दूसरा जो सबसे बड़ा कारण था ---- ऋषि कहते हैं ' नर और नारायण ' का जोड़ा ही जीतता है l अर्जुन को नर और कृष्ण को नारायण कहा गया है l जब अर्जुन निराश हो गया था तब भगवान ने गीता का उपदेश देकर उसे प्रेरणा दी उसके आत्मबल को जगाया , अर्जुन के जीवन रूपी रथ की बागडोर संभाली l कर्ण चाहे अर्जुन से श्रेष्ठ था लेकिन उसने अपने आपको ही सब कुछ माना , नारायण को अपना पूरक नहीं बनाया इसलिए उसे पूरक सत्ता का , ईश्वर का साथ नहीं मिल सका और वह पराजित हुआ l
25 March 2024
WISDOM ----
संसार में जिनके पास धन -वैभव , शक्ति , साधन सब कुछ है , उन्हें इस बात का अहंकार होता है कि वे इस भौतिक संपदा से सब कुछ खरीद सकते हैं l भौतिक संपदा के साथ बुराइयाँ तो बिना ख़रीदे ही खिंची चली आती है लेकिन यदि सद्गुण चाहिए तो उनके लिए कठिन साधना करनी पड़ती है l जैसे सत्य बोलना , दया , करुणा , ईमानदारी , कर्तव्यपालन , सब में एक ही परमात्मा को देखना ---आदि अनेक सद्गुणों को अपने व्यवहार में लाना हर किसी के लिए संभव नहीं है l जो ऐसे सद्गुणी होते हैं , ईश्वर के बताए मार्ग पर चलते हैं उन्हें ही ईश्वर ' सद्बुद्धि का , विवेक का ' वरदान देते हैं l' विवेक बुद्धि ' होने पर ही जीवन में सही निर्णय लेना संभव होता है l ----------------- सम्राट बिंबसार को सत्य का स्वरुप जानने की इच्छा हुई l उन्होंने भगवान महावीर से कहा --- " भगवन ! मैं सत्य को जानना चाहता हूँ l उसको प्राप्त करना चाहता हूँ और उसे प्राप्त करने के लिए मैं किसी भी ऊँचाई तक पहुँचने में सक्षम हूँ l " सम्राट की बात सुनकर भगवान महावीर को लगा कि दुनिया को जीतने वाला सम्राट सत्य को भी उसी प्रकार जीतने का इच्छुक है l अहंकार के वशीभूत होकर वह सत्य को भी क्रय करने की वस्तु मान बैठा है और उसे उसी तरह प्राप्त करने का इच्छुक है l उन्होंने बिंबसार को समझाया --- " वत्स ! सत्य को न तो ख़रीदा जा सकता है और न उसे दान या भिक्षा के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है l सत्य कोई राज्य भी नहीं है जिस पर आक्रमण कर के तुम विजय प्राप्त कर लो l सत्य को प्राप्त करने के लिए अहं को गलाना पड़ता है और अहंकार शून्य होने पर ही सत्य का बोध होता है l " बिंबसार को अपनी गलती का अनुभव हो गया l
24 March 2024
WISDOM -----
पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " आज के युग की समस्या ही यह है कि आज जो अधर्म करते हैं , वे भी धर्म का नाम लेकर ही करते हैं l आज जो अनीति करते हैं , वे भी नीति की ही दुहाई देते हैं l इसलिए धार्मिक स्थलों पर अधर्म घटता है , विद्या के मंदिरों में उपद्रव होता है और नीति नियंताओं द्वारा अनैतिक कृत्य होता दिखाई पड़ता है l चोरी करने जाता व्यक्ति स्वयं को समझाता है कि मैं चोरी नहीं कर रहा हूँ , मैं तो अमीरों को मिला धन लेकर गरीबों में बाँट दूंगा l इस तरह वह स्वयं को यह प्रमाणित करने की कोशिश करता है कि वह जो कर रहा है , वो बड़ा धार्मिक कृत्य है l " श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान कहते हैं ---- आसुरी प्रवृत्ति वाला व्यक्ति करता सब गलत है , पर मन में यह मानकर बैठता है कि वो बिलकुल सही है क्योंकि उसका चित्त अज्ञान और अहंकार से ढका हुआ है l धीरे -धीरे उसको सच का पता चलना ही बंद हो जाता है l श्री भगवान कहते हैं --- आसुरी प्रवृत्ति वाले मनुष्यों को अपने सभी प्रतिस्पर्धी अपने दुश्मन नजर आते हैं , उनमें दूसरों को नष्ट करने की बड़ी तीव्र लालसा होती है l आसुरी प्रवृत्ति वाले स्वयं को सर्वसमर्थ , बलवान और सुखी मानते हैं l समस्या यह है कि आसुरी प्रवृत्ति का देवत्व में रूपांतरण बहुत कठिन है , व्यक्ति अपने अहंकार को नहीं छोड़ता l कभी किसी के जीवन में कोई ऐसी दिल को छू लेने वाली घटना घट जाए , कुछ ऐसा हो जाये जो उसने कभी सोचा भी न था तब वह व्यक्ति रूपांतरित हो जाता है l ऐसा लाखों में कोई एक के साथ होता है l इतने प्रवचन , सत्संग सब ऊपर से निकल जाते हैं , कुछ असर नहीं होता l एक प्रसंग है ---- निरजानंद नामक एक स्वामी थे l एटा के पास गंगा किनारे रहते थे l उनके गाँव में एक डकैत बीमार हो गया l कोई उसकी सेवा करने नहीं गया l स्वामी जी सब में ईश्वर का वास है , इस सत्य को मानते थे इसलिए उसकी सेवा करने गए l उन्होंने उस डकैत की दिन -रात सेवा की जिससे वह स्वस्थ हो गया और अब उसका जीवन बदल गया l वह बोला ---" महाराज ! हमारे जितने भी साथी थे , सब बीमारी के समय भाग गए , किसी ने भी नहीं पूछा l केवल आपने ही हमारी सेवा की l अब हम आपकी सेवा करेंगे l " अब वह स्वामी जी की पूजा की व्यवस्था कर देता , नित्य ही उनके लिए फलाहार आदि बना देता , उनके पैर दबाता , हर तरह से सेवा करता l स्वामी जी के महाप्रयाण के बाद वह उन्हें अपना गुरु मानकर उनकी फोटो की पूजा करने लगा , मन्त्र जपता , और गाँव में कोई बीमार हो , उनकी भी सेवा करता l अंतिम समय में भी वह अपने गुरु के ही ध्यान में डूबा था l उसने अपने कर्मों को सुधारा और अंतिम समय में अपने गुरु का ,ईश्वर का स्मरण करते हुए मृत्यु का आलिंगन किया l आचार्य श्री कहते हैं --- यह मनुष्य जीवन अनमोल है , हमारे पास अपने कर्मों को सुधारने का समुचित अवसर है l
23 March 2024
WISDOM -----
पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " तप और वरदान की उपयोगिता तभी है , जब सद्बुद्धि का साथ में समावेश हो l आत्म परिष्कार और पात्रता के अभाव में सदा मस्तिष्क पर दुर्बुद्धि छाई रहती है l यदि अनायास ही कोई सुयोग आ टपके तो वही मांग बैठती है जो अंततः आत्मघाती सिद्ध होता है l " ----- पुराण की एक कथा है ---- राजा नहुष को पुण्यफल के बदले इन्द्रासन प्राप्त हुआ l वे स्वर्ग में राज करने लगे l प्रभुता पाकर किसे मद नहीं होता ? ऐश्वर्य और सत्ता का मद जिन्हें न आवे ऐसे कोई विरले ही होते हैं l नहुष भी सत्तामद से प्रभावित हुए बिना न रह सके l उनकी द्रष्टि रूपवती इन्द्राणी पर पड़ी , वे उन्हें अपने अंत:पुर में लाने का विचार करने लगे कि जब इन्द्रासन मिल गया तो इन्द्राणी भी उनके साथ हों l ऐसा प्रस्ताव उन्होंने इन्द्राणी के पास भेज दिया l इन्द्राणी बहुत दुःखी हुईं l राजा की आज्ञा का विरोध शक्ति से तो संभव न था , उन्होंने विवेक से काम लिया l ' सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे l उन्होंने नहुष के पास सन्देश भिजवाया कि मुझे आपका प्रस्ताव स्वीकार है लेकिन मेरी एक शर्त है कि आप पालकी में चढ़कर मेरे पास आयें और उस पालकी को सप्त ऋषि जोतें , अन्य कोई उसमें मदद न करे l अब सत्ता के मद में नहुष पर तो दुर्बुद्धि सवार थी , उन्होंने सप्त ऋषि पकड़ बुलाये , उन्हें पालकी में जोता गया l नहुष पालकी पर चढ़ बैठे l नहुष बहुत आतुर थे इसलिए ऋषियों से बार -बार कहने लगे ' जल्दी चलो -जल्दी चलो ' l ऋषियों की दुर्बल काया , इतनी दूर तक इतना भार लेकर तेज चलने में समर्थ न हो सके l ऐसा घोर अपमान और उत्पीड़न से वे क्षुब्ध हो उठे l एक ने कुपित होकर शाप दे डाला --- ' दुष्ट ! तू स्वर्ग से पतित होकर , पुन: धरती पर जा गिर l " शाप सार्थक हुआ l नहुष स्वर्ग से पतित होकर मृत्यु लोक में दीनहीन की तरह विचरण करने लगे l
22 March 2024
WISDOM ----
ईर्ष्या , द्वेष , लोभ , अहंकार, महत्वाकांक्षा , स्वार्थ , लालच आदि ----- ये सब ऐसे दुर्गुण हैं जिनसे मनुष्य तो क्या देवता भी अछूते नहीं हैं l आज संसार में जितना तांडव है , वह मनुष्य के इन्ही दुर्गुणों के कारण है l मनुष्य कितना भी बूढ़ा हो जाए , ये दुर्गुण उसका पीछा नहीं छोड़ते l सत्य तो यह है कि मनुष्य उनसे अपना पीछा छुड़वाना ही नहीं चाहता , इन्हें अपनी आत्मा से चिपकाए जन्म -जन्मान्तर की यात्रा करता है l जब व्यक्ति स्वयं सुधरना चाहे , अपने दुर्गुणों को दूर करने का संकल्प ले तभी रूपांतरण संभव है l ------ देवगुरु ब्रहस्पति इतने सम्मानित पद पर होने के बावजूद भी उनके जीवन में ईर्ष्या का दुर्गुण आ गया l उनके बड़े भाई संवर्त बहुत गुणवान थे , लोगों के ह्रदय में उनका बहुत सम्मान था l इसी बात से देवगुरु को उनसे बहुत ईर्ष्या थी , इस कारण वे अपने भाई को बहुत कष्ट देने लगे l इससे परेशान होकर संवर्त ने घर छोड़ दिया l उनके गुणों और पांडित्य के कारण वे जहाँ जाते वहां उनका सम्मान होता l देवगुरु ब्रहस्पति में उन दिनों एक बुराई यह भी आ गई थी कि वे किसी की तरक्की , किसी को आगे बढ़ता हुआ नहीं देख सकते थे l राजा मरुत ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया और उसमें देवगुरु ब्रहस्पति से आचार्य पद ग्रहण करने को कहा l देवगुरु ने सोचा कि इतना विशाल यज्ञ कर के मरुत तो इंद्र से भी शक्तिशाली हो जाएंगे , इसलिए उन्होंने आचार्यत्व ग्रहण करने से इनकार कर दिया l तब राजा मरुत ने देवगुरु के भाई संवर्त से आचार्य का पद सँभालने का निवेदन किया l वे बहुत विद्वान् थे , उनमें कोई अहंकार भी नहीं था , उन्होंने आचार्य बनना स्वीकार कर लिया l यह समाचार जब ब्रहस्पति ने सुना तो जल -भुन गए l ईर्ष्या चाहे मनुष्यों में हो या देवताओं में , यह शारीरिक , मानसिक शक्तियों को कम कर देती है , उसका पतन कर देती है l ब्रहस्पति अपने ही शिष्य इंद्र के सामने नतमस्तक हुए और कहा कि मरुत के यज्ञ को विध्वंस करो l इसके पहले उन्होंने अग्नि देव को उस यज्ञ को विध्वंस करने और राजा मरुत को अपमानित करने के लिए भेजा l लेकिन संवर्त के ब्रह्मचर्य और तेज को देखकर वे चुपचाप देवलोक लौट गए l अब इंद्र स्वयं आए यज्ञ को नष्ट करने l तब संवर्त ने उनसे प्रार्थना की कि यह यज्ञ तो वे विश्व कल्याण के लिए कर रहे हैं , आप हमारे देवता हैं यज्ञ में अपना भाग ग्रहण करें l संवर्त की उदारता , विनय , ज्ञान और उनके तेज से इंद्र बहुत प्रसन्न हुए , यज्ञ में भाग ग्रहण किया और आशीर्वाद देकर लौट आए l यह सब देख देवगुरु ब्रहस्पति बहुत लज्जित हुए l ईर्ष्या के कारण उन्हें अपमान और पश्चाताप सहना पड़ा l
21 March 2024
WISDOM ----
लघु कथा --- एक गोताखोर बहुत दिनों से असफल रह रहा था l घोर परिश्रम करने पर भी कुछ हाथ न लगा l पेट भरने के लाले पड़ गए l कोई रास्ता सूझता न था l एक दिन किनारे बैठकर उसने देवता की बहुत प्रार्थना की --- "आप सहारा न देंगे तो मैं जीवित कैसे रहूँगा ? " देवता को दया आ गई , उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया l अब उसने फिर डुबकी लगाईं तो एक पोटली हाथ लगी , खोलकर देखा तो उसमें छोटे -छोटे पत्थर भरे थे l दुर्भाग्य को उसने कोसा और देवता को निष्ठुर बताया l वह एक -एक कर के पत्थर के टुकड़ों को पानी में फेंकने लगा और सोचने लगा कि अब वह गोताखोरी छोड़कर मछली पकड़ेगा , इसमें लाभ है l इन्हीं विचारों के बीच जब उसने अंतिम टुकड़े को ध्यान से देखा , तो वह बहुमूल्य नीलम था l देवता के अनुग्रह से मिली इतनी राशि उसने अपने हाथों गंवाई , इसका उसे बहुत दुःख हो रहा था l तभी देवता प्रकट हुए और बोले --- " अकेले तुम ही इस दुनिया में प्रमादी नहीं हो , अन्य लोग भी इस रत्न राशि से बढ़कर बहुमूल्य जीवन संपदा को इसी प्रकार बरबाद करते हैं l जाओ जो बचा है उसे बेचकर कम चलाओ l बड़े भाग्य से मनुष्य का शरीर मिलता है , होश में रहकर जीवन जियो l "
19 March 2024
WISDOM -----
एक बार की बात है भगवान विष्णु धरती के निवासियों से बहुत प्रसन्न थे और मुक्त हस्त से सभी प्राणियों को उनकी इच्छानुसार धन -धन्य , सुख -स्वास्थ्य , धन -रत्न , पुत्र -पौत्र , वैभव -विलास सब वितरित कर रहे थे l वैकुण्ठ में बड़ी भीड़ थी l वैकुण्ठ का कोष रिक्त होते देख महालक्ष्मी ने विष्णु जी से कहा ---" यदि इस प्रकार मुक्त भाव से आप संपदा लुटाते रहे तो वैकुण्ठ में कुछ नहीं बचेगा , तब हम क्या करेंगे ? " विष्णुजी मंद -मंद हँसे और बोले ---- " देवी ! मैंने सारी संपदा तो नहीं दी l एक निधि ऐसी है जिसे नर , किन्नर , गन्धर्व , देवता , असुर किसी ने भी नहीं माँगा है l " महालक्ष्मी पूछ बैठीं --- " कौन सी निधि ? " विष्णु जी ने कहा ---- " शांति --- उसे कोई नहीं मांगता l ये प्राणी भूल गए हैं कि शांति के बिना कोई भी संपदा पास नहीं रह सकेगी l उन्होंने जो माँगा वह मैंने दिया l अपने लिए मैंने मात्र शांति की निधि सुरक्षित रख ली है l आज के युग की सच्चाई यही है , चाहे कितने ही सुख के साधन हो , लेकिन किसी के मन को शांति नहीं है , सब भाग रहे हैं , एक अंधी दौड़ है l यह शांति कैसे मिले ? ------- देवर्षि नारद के गुरु थे --सनत्कुमार जी l नारद जी ने उनसे ही सारी विद्याएँ , कलाएं सीखीं l गुरु ने अपनी दिव्य द्रष्टि से देखा कि इतने ज्ञान के बावजूद नारद के मन में आकुलता है , शांति नहीं है l सनत्कुमार जी ने नारद जी से कहा --- " तुम अपने ज्ञान का घमंड नहीं करो , भूल जाओ कि तुम ज्ञानी हो , अपने ज्ञान को भक्ति के साथ वितरित करना आरम्भ कर दो l ज्ञान , भक्ति और कर्म के संयोग से ही तुम्हारे मन को शांति मिलेगी l नारद जी ने भक्ति गाथा लिखी , संसार में भ्रमण करते हुए उसको जन -जन तक उसे पहुँचाया तब उनके मन को शांति मिली और वे भक्त शिरोमणि कहलाये l अनेकों को परामर्श देकर उनके जीवन की दिशा बदल दी l उनके परामर्श से ही ध्रुव , प्रह्लाद , महर्षि वाल्मीकि भक्ति के चरम पर पहुंचे l
18 March 2024
WISDOM-------
श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्तव्य कर्म को ही श्रेष्ठतम कर्म कहा है l मनुष्य अपने कर्तव्य कर्म से तो मुख मोड़ सकता है , परन्तु कर्मों के फल से नहीं बच सकता l यदि किसी कर्म द्वारा हम भगवान की ओर बढ़ते हैं तो वह सत्कर्म है और वह हमारा कर्तव्य है , परन्तु जिस कर्म के द्वारा हम पतित होते हैं वह हमारा कर्तव्य नहीं हो सकता l पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " देश -काल -पात्र के अनुसार हमारे कर्तव्य बदल जाते हैं और सबसे श्रेष्ठ कर्म तो यह है कि जिस विशिष्ट समय पर हमारा जो कर्तव्य हो , उसी को हम भली -भांति निभाएं l पहले तो हमें जन्म से प्राप्त कर्तव्य को करना चाहिए और उसे कर चुकने के बाद , सामाजिक जीवन में हमारे ' पद ' के अनुसार जो कर्तव्य हो , उसे संपन्न करना चाहिए l आचार्य श्री लिखते हैं --- ' प्रकृति हमारे लिए जिस कर्तव्य का चयन करती है , उसका विरोध करना व्यर्थ है l यदि कोई मनुष्य छोटा कार्य करे , तो उसके कारण वह छोटा नहीं कहा जा सकता l कर्तव्य के मात्र बाहरी रूप से ही मनुष्य की उच्चता का निर्णय करना उचित नहीं है , देखना तो यह चाहिए कि वह अपना कर्तव्य किस भाव से करता है l सबसे श्रेष्ठ कार्य तो तभी होता है , जब उसके पीछे किसी प्रकार का स्वार्थ न हो और उस व्यक्ति ने अपना कर्तव्य पूर्ण मनोयोग के साथ पूर्ण किया हो l " एक कथा है ---- एक संन्यासी ने कठोर तप किया , उनके पास कुछ ऐसी शक्ति आ गई कि क्रोध आने पर द्रष्टि मात्र से ही वे किसी को भी भस्म कर सकते थे l उन्हें अपनी शक्ति का बड़ा अहंकार हो गया l ईश्वर किसी के अहंकार को सहन नहीं करते , उस समय आकाशवाणी हुई कि तुमसे भी बड़ा तपस्वी अमुक व्याध है l संन्यासी उस व्याध से मिलने गए तो देखा कि वह व्याध अपना काम लगातार कर रहा है और जब काम पूरा कर चुका तो उसने अपने रूपये -पैसे समेटे और संन्यासी से कहा --- " चलिए महाराज ! घर चलिए l " घर पहुंचकर व्याध ने उन्हें आसन दिया और कहा ---' आप यहाँ थोडा ठहरिये l " इतना कहकर वह व्याध अन्दर चला गया l वहां उसने अपने वृद्ध माता -पिता को स्नान कराया , भोजन कराया और फिर उन संन्यासी के पास आया और कहा ---' अब बताइए , मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ? ' संन्यासी ने उससे आत्मा -परमात्मा सम्बन्धी प्रश्न किए , उनके उत्तर में व्याध ने जो उपदेश दिया वह महाभारत में वर्णित है l जब व्याध अपना उपदेश समाप्त कर चुका तो संन्यासी को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने कहा ---- " इतने ज्ञानी होते हुए भी आप इतना निन्दित और कुत्सित कार्य क्यों करते हैं ? " व्याध ने कहा ---- " महाराज ! कोई भी कार्य निंदित अथवा अपवित्र नहीं है l मैं जन्म से ही इस परिस्थिति में हूँ , यही मेरा प्रारब्धजन्य कर्म है l मेरी इसमें कोई आसक्ति नहीं है , कर्तव्य होने के नाते मैं इसे उत्तम रूप से करता हूँ l मैं गृहस्थ होने के नाते अपना कर्तव्य करता हूँ और अपने माता -पिता के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण करता हूँ l मैं कोई योग नहीं जानता , संन्यासी नहीं हूँ , संसार को छोड़कर कभी वन भी नहीं गया , परन्तु फिर भी आपने मुझसे जो सुना व देखा वह सब मुझे अनासक्त भाव से अपनी अवस्था के अनुरूप कर्तव्य का पालन करने से ही प्राप्त हुआ है l " आचार्य श्री लिखते हैं --- " कर्तव्य आत्मा को मुक्त कर देने के लिए शक्तिशाली साधन हैं , इसलिए जब भी हम कोई कार्य करें तो उसे एक उपासना के रूप में करना चाहिए , कार्य को पूजा समझकर करें l "
17 March 2024
WISDOM -----
एक साधक जब भी पूजा में बैठता , तभी बुरे विचार उसके मन में उठते l वह गुरु से इसका हल पूछने गया l गुरु ने उसे एक कुत्ते की सेवा करने का आदेश दिया , दस दिन तक वह उनके आश्रम में ही ठहरा l शिष्य कारण तो नहीं समझ सका , पर गुरु के आदेशानुसार कुत्ते की सेवा करने लगा l दस दिन कुत्ते को साथ रखने से वह उसके साथ बहुत हिल -मिल गया l अब गुरु ने आज्ञा दी कि इसे भगाकर आओ l साधक भगाने जाता , लेकिन वह कुत्ता फिर उसके पीछे -पीछे लौट आता l तब गुरु ने समझाया कि जिन बुरे विचारों में तुम दिन भर डूबे रहते हो , वे पूजा के समय तुम्हारा साथ क्यों छोड़ने लगे ? शिष्य की समझ में बात आ गई और उसने दिन भर अच्छे विचार करते रहने की साधना शुरू कर दी l गुरु ने कहा --- ध्यान का अर्थ मात्र एकाग्रता नहीं , श्रेष्ठ विचारों की तन्मयता भी है l श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान ने कहा है कि निष्काम कर्म से मन निर्मल होता है , कर्म कटते हैं , जन्मों के पाप धुल जाते हैं और धीरे -धीरे एक समय ऐसा आता है कि बुरे विचारों का आना बंद हो जाता है l अध्यात्म -पथ पर धैर्य की जरुरत है l
16 March 2024
WISDOM ---
पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " यह ज्ञान ही है जो सत्य को असत्य में गिरने से , धर्म को अधर्म में परिणत होने से , दान को कृपणता में बदलने से , तप को भोगवादी होने से और तीर्थों को अपवित्रता में परिवर्तित होने से बचाता है l लेकिन यदि ज्ञान ही अपने मार्ग से भ्रष्ट हो जाता है और अविवेक का मार्ग अपनाता है तो - सत्य , धर्म , ज्ञान आदि विभूतियों का क्या होगा ? " आचार्य श्री लिखते हैं ---- ' ज्ञानी जब अहंकारी हो जाता है तब उसके अंत: करण से करुणा नष्ट हो जाती है l उस स्थिति में वह औरों का मार्गदर्शन नहीं कर सकता l ऐसी सर्वज्ञता का क्या लाभ ? " -------- दक्षिण भारत के एक बड़े ही ज्ञानी , तपस्वी साधु थे ---सदाशिव ब्रह्मेन्द्र स्वामी l ये अपने गुरु के आश्रम में वेदांत का अध्ययन कर रहे थे l एक दिन उस आश्रम में एक विद्वान् पंडित जी पधारे l आश्रम में प्रवेश करते ही किसी बात पर उनका सदाशिव स्वामी से विवाद हो गया l सदाशिव स्वामी ने अपने तर्कों से उन पंडित जी के तर्कों को तहस -नहस कर दिया l वे आगंतुक पंडित , सदाशिव स्वामी की विद्वता के सामने पराजित हो गए और स्थिति ऐसी हो गई कि उन पंडित जी को ब्रह्मेन्द्र स्वामी से क्षमा -याचना करनी पड़ी l ब्रह्मेन्द्र स्वामी बड़े प्रसन्न थे कि उनकी इस विजय पर गुरु उनकी पीठ थपथपायेंगे , लेकिन ऐसा हुआ नहीं , बल्कि इसके ठीक विपरीत हुआ l उनके गुरु ने सदाशिव ब्रह्मेन्द्र स्वामी को कड़ी फटकार लगाईं और बोले ----- " सदाशिव ! श्रेष्ठ चिंतन की सार्थकता तभी है , जब उससे श्रेष्ठ चरित्र बने और श्रेष्ठ चरित्र तभी सार्थक है , जब वह श्रेष्ठ व्यवहार बनकर प्रकट हो l तुमने वेदांत का चिन्तन तो किया , पर ज्ञाननिष्ठ साधक का चरित्र नहीं गढ़ सके और न ही तुम ज्ञाननिष्ठ साधक का व्यवहार करने में समर्थ हो पाए , इसलिए तुम्हारे अब तक के सारे अध्ययन -चिन्तन को बस धिक्कार योग्य ही माना जा सकता है l " गुरु के इन वचनों को सुनकर सदाशिव स्वामी का अहंकार चूर -चूर हो गया l उन्होंने बड़े ही विनम्र भाव से पूछा --- " हे गुरुदेव ! हम अपना व्यक्तित्व किस भांति गढ़ें ? " उत्तर में गुरुदेव ने कहा ---- " तर्क -कुतर्क से बचो और मौन रहकर सकारात्मक चिन्तन , मनन , ध्यान से श्रेष्ठ चरित्र का निर्माण करो l "
15 March 2024
WISDOM -----
पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----" अहंकार एक भ्रम है , जो व्यक्ति के अन्दर तब उत्पन्न होता है जब वह स्वयं को श्रेष्ठ और शक्तिमान समझने लगता है l वह यह मानने लगता है कि दुनिया उसी के इशारे पर चल रही है l जब व्यक्ति सफल होता है तब अपने अहंकार के कारण वह परमात्मा को धन्यवाद देना भूल जाता है और यह सोचता है कि उसी ने सब कुछ किया है l वह चाहता है कि सारी दुनिया उसी का गुणगान करे , उसी के इशारों पर चले l " ------- दक्षिण में मोरोजी पन्त नामक बहुत बड़े विद्वान् थे l उनको अपनी विद्या का बहुत अभिमान था l सबको नीचा दिखाते रहते थे l एक दिन दोपहर के समय वे अपने घर से स्नान करने के लिए नदी पर जा रहे थे l मार्ग में एक पेड़ पर दो ब्रह्मराक्षस बैठे थे l वे आपस में बातचीत कर रहे थे l एक ब्रह्मराक्षस बोला ---- " हम दोनों तो इस पेड़ की दो डालियों पर बैठे हैं , पर यह तीसरी डाली खाली है , इस पर बैठने के लिए कौन आएगा ? " दूसरा ब्रह्मराक्षस बोला ---- " यह जो नीचे से जा रहा है न , वह यहाँ आकर बैठेगा क्योंकि इसको अपनी विद्वता का बड़ा अभिमान है l " उन दोनों का यह संवाद सुनकर मोरोजी पंत वहीँ रुक गए l अपनी होने वाली इस दुर्गति से कि प्रेतयोनि में जाना होगा , वे बहुत घबरा गए और मन ही मन संत ज्ञानेश्वर के प्रति शरणागत होकर बोले ---- " मैं आपकी शरण में हूँ , आपके सिवाय मुझे बचाने वाला कोई नहीं है l " ऐसा सोचते हुए वे आलंदी के लिए चल पड़े और जीवन पर्यंत वहीँ रहे l आलंदी वह स्थान है जहाँ संत ज्ञानेश्वर ने जीवित समाधि ली थी l संत की शरण में जाने से उनका अभिमान चला गया और संत की कृपा से वे भी संत बन गए l आचार्य श्री लिखते हैं --- जीवन में अहंकार उत्पन्न होने से प्रगति के मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं l यदि व्यक्ति की चेतना जाग्रत हो जाये , वह इस सत्य को समझ ले कि जीवन की सार्थकता अहंकार में और उसके अनुचित पोषण में नहीं है तब वह ईश्वर शरणागति , समर्पण भाव , विनम्रता , शालीनता और सद् विवेक को जाग्रत कर अपने जीवन को सही दिशा में ला सकता है l '
14 March 2024
WISDOM ----
पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " अहंकार ज्ञान के सारे द्वार बंद कर देता है l अहंकारी की प्रगति जितनी तीव्र होती है , उसका पतन उससे भी अधिक तीव्र गति से होता है l जीवन में पूर्णता की प्राप्ति पात्रता एवं नम्रता से होती है , अभिमान और अहंकार से नहीं l " ---- एक दिन पानी से भरे कलश पर रखी हुई कटोरी ने घड़े से कहा --- " कलश ! तुम बड़े उदार हो l अपने पास आने वाले प्रत्येक पात्र को भर देते हो l किसी को खाली नहीं जाने देते l " कलश ने उत्तर दिया --- " हाँ ! मैं अपने पास आने वाले प्रत्येक पात्र को भर देता हूँ , मेरे अंतर का सारा सार दूसरों के लिए है l " कटोरी बोली ---- " लेकिन मुझे कभी नहीं भरते जबकि मैं हर समय तुम्हारे सिर पर ही मौजूद रहती हूँ l " घड़े ने उत्तर दिया ---- " इसमें मेरा कोई दोष नहीं है , दोष तुम्हारे अहंकार का है l तुम अभिमान पूर्वक मेरे सिर पर चढ़ी रहती हो , जबकि अन्य पात्र मेरे पास आकर झुकते हैं और अपनी पात्रता सिद्ध करते हैं l तुम भी अभिमान छोड़कर मेरे सिर से उतर कर विनम्र बहो बनों , मैं तुम्हे भी भर दूंगा l "
13 March 2024
WISDOM -----
वर्तमान समय में इतने साधु , संत , समाज सुधारक , कथा , प्रवचन , सत्संग इतना अधिक है लेकिन फिर भी सुधार का प्रतिशत लगभग शून्य है l लोग एक कान से सुनते हैं और दूसरे कान से निकाल देते हैं , याद भी रखते हैं तो कही सुनाने के लिए , अपनी छाप छोड़ने के लिए l कमी दोनों तरफ ही है l आचार्य श्री कहते हैं ---- ' एक नशेड़ी अपने जीवन में सैकड़ों नशा करने वालों को अपने साथ जोड़ लेता है l ऐसा इसलिए संभव होता है क्योंकि वह स्वयं नशा करता है , फिर दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करता है , वह जो कहता है , वैसा ही करता भी है l उसकी वाणी और उसका आचरण में एकरूपता होने से उसकी नशे के लिए प्रेरित करने वाली बात में बल आ जाता है l लेकिन सन्मार्ग पर चलने का , सत्य बोलने का , किसी का हक न छीनो , किसी को न सताओ ----ऐसा उपदेश देने वाले बहुत हैं लेकिन उनकी वाणी और व्यवहार में एकरूपता न होने से समाज में सुधार नहीं होता है l ' संसार में अच्छे लोग भी बहुत हैं , जो अपने आचरण से शिक्षा देते हैं लेकिन इतने विशाल संसार में उनकी संख्या बहुत कम है l प्रवचन सुनने भी जो आते हैं , वे उसे टाइम पास और मनोरंजन समझते हैं l एक कथा है ----- एक संत प्रव्रज्या पर निकले और चतुर्मास के दिनों में एक गाँव में ठहर गए l वहां वे नित्य प्रति व्याख्यान देते और उन्हें सुनने के लिए अनेकों गांववासी एकत्रित होते थे l एक भक्त ऐसा था , जो नित्य प्रति उनकी सभा में उपस्थित होता और प्रवचन भी सुनता था l एक दिन उसने संत से कहा --- " महाराज ! मैं नित्य आपका प्रवचन सुनता हूँ , फिर भी बदल क्यों नहीं पाता हूँ ? " संत ने उससे पूछा --- " वत्स ! तुम्हारा घर यहाँ से कितनी दूर है ? " उस व्यक्ति ने कहा --- " करीब दस कोस दूर l " संत ने फिर प्रश्न किया --- " तुम वहां कैसे जाते हो ? " उस व्यक्ति ने उत्तर दिया --- " महाराज ! पैदल जाता हूँ l " संत ने पूछा --- " क्या ऐसा संभव है कि तुम बिना चले , यहाँ बैठे -बैठे अपने गाँव पहुँच जाओ l " वह व्यक्ति बोला --- " महाराज ! ऐसा कैसे संभव है l यदि घर जाना है तो उतनी यात्रा तो करनी ही पड़ेगी l " संत बोले ---- " पुत्र ! यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है l तुम्हे घर का पता , वहां जाने का मार्ग सब मालूम है लेकिन जब तक तुम उस मार्ग पर चलोगे नहीं , तब तक घर जाना संभव नहीं होगा l इसी प्रकार तुम्हारे पास ज्ञान है , इसे जीवन में उतारे बिना तुम अच्छे इन्सान नहीं बन सकते l यदि तुम्हे स्वयं के भीतर परिवर्तन का अनुभव करना है तो उसके लिए सीखी गई बातों को जीवन में उतारने का प्रयत्न करना होगा l
12 March 2024
WISDOM -----
पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " मनुष्य की आत्मा में विवेक का प्रकाश कभी भी पूर्णतया नष्ट नहीं हो सकता l इसलिए पाप का पूर्ण साम्राज्य कभी भी छा नहीं सकेगा l विवेकवान आत्माएं अपने समय की विकृतियों से लड़ती ही रहेंगी और बुरे समय में भी भलाई की ज्योति चमकती रहेगी l " लघु -कथा ---- शिष्य ने प्रश्न किया --- " गुरुदेव ! जब संसार में सभी आदमी एक ही तत्व के एक से बने हैं , तो यह छोटे -बड़े का भेदभाव क्यों है ? " गुरु ने उत्तर दिया ---- " वत्स ! संसार में छोटा -बड़ा कोई नहीं , यह सब अपने -अपने आचरण का खेल है l जो सज्जन हैं वे बड़े हो जाते हैं , जबकि नेकी और सज्जनता के अभाव में वही छोटे कहलाने लगते हैं l " शिष्य की समझ में यह बात आई नहीं l तब गुरुदेव ने उसे समझाया कि युधिष्ठिर अपने आचरण के कारण ही धर्मराज कहलाए l जब महाभारत का युद्ध हो रहा था तब युधिष्ठिर शाम को वेश बदलकर कहीं जाते थे l भीम अर्जुन आदि की इच्छा हुई कि देखें आखिर वे वेश बदलकर कहाँ जाते है l शाम को युद्ध विराम होने पर जब युधिष्ठिर वेश बदलकर निकले तो चारों पांडव छुपकर उनके पीछे चल दिए l उन्होंने देखा कि युधिष्ठिर युद्ध स्थल पहुंचे और वहां घायल पड़े लोगों की सेवा कर रहे हैं l घायल व्यक्ति कौरव पक्ष का हो या पांडव पक्ष का वे बिना किसी भेदभाव के सबको अन्न -जल खिला -पिला रहें हैं l किसी को घायल अवस्था में अपने परिवार की चिंता है तो उसे आश्वासन दे रहे हैं l अपने निश्छल प्रेम और करुणा से वे घायलों व मरणासन्न लोगों के कष्ट कम कर रहे हैं , उनकी उपस्थिति ही सबको शांति दे रही है l रात्रि के तीन पहर बीत जाने पर जब वे लौटे तो अर्जुन ने पूछा ---- ' आपको छिपकर , वेश बदलकर आने की क्या जरुरत थी ? " युधिष्ठिर ने कहा --- तात ! इन घायलों में से अनेक कौरव दल के हैं , वे हम से द्वेष रखते हैं l यदि मैं प्रकट होकर उनके पास जाता तो वे अपने ह्रदय की बातें मुझसे न कह पाते और मैं सेवा के सौभाग्य से वंचित रह जाता l " भीम ने कहा --- " शत्रु के सेवा करना क्या अधर्म नहीं है ? " युधिष्ठिर ने कहा --- " बन्धु ! शत्रु मनुष्य नहीं पाप और अधर्म होता है l आत्मा से किसी का कोई द्वेष नहीं होता l मरणासन्न व्यक्ति के मृत्यु के कष्ट को यदि हम कुछ कम कर सकें तो यह हमारा सौभाग्य होगा l " नकुल ने कहा --- " लेकिन महाराज , आपने तो सर्वत्र यह कह रखा है कि शाम का समय आपकी ईश्वर -उपासना का है , इस तरह झूठ बोलने का पाप आपको लगेगा l " युधिष्ठिर बोले --- " नहीं नकुल ! भगवान की उपासना जप , तप और ध्यान से ही नहीं होती , कर्म भी उसका उत्कृष्ट माध्यम है l यह विराट जगत उन्ही का प्रकट रूप है l जो दीन -दुःखी हैं , उनकी सेवा करना , जो पिछड़े और दलित हैं उन्हें आत्म कल्याण का मार्ग दिखाना भी भगवान का ही भजन है l इस द्रष्टि से मैंने जो किया वह ईश्वर की उपासना ही है l सत्य और धर्म का आचरण करने के कारण ही वे धर्मराज कहलाए l
11 March 2024
WISDOM -----
1 . हातिम परदेश जाने लगे तो अपनी पत्नी से पूछ बैठे --- 'तुम्हारे लिए खाने -पीने का कितना सामान रख जाऊं ? " पत्नी ने हँसते हुए कहा --- " जितनी मेरी आयु हो l " हातिम ने कहा --- ' तुम्हारी आयु जानना मेरे बस की बात नहीं है l " पत्नी ने कहा --- " तब तो मेरी रोटी का इंतजाम भी आपके बूते की बात नहीं है l यह काम जिसका है , उसी को करने दीजिए l " पत्नी का ईश्वर पर विश्वास से मुग्ध होकर हातिम परदेश चले गए l एक दिन एक पड़ोसन ने पूछा ---- " बेटी ! हातिम तेरे लिए क्या इंतजाम कर गए हैं ? ' हातिम की पत्नी ने कहा --- " मेरे पति क्या इन्तजाम करेंगे वे तो खाने वाले थे l खाना देने वाला तो अब भी यहीं है l " ईश्वर विश्वासी को किसी का आश्रय आवश्यक नहीं है l
10 March 2024
WISDOM---
संकल्प की शक्ति ----- महाराज अनंगपाल जिस जल से स्नान करते थे उसमें प्रतिदिन कोई न कोई इत्र , चन्दन ,केवड़ा , गुलाब की सुवास मिलाई जाती थी , पर उस दिन के जल में जो मादकता , मधुरता थी , वैसी पहले कभी नहीं मिली थी l महाराज ने परिचारिका को बुलाया और पूछा ----" आज जल -कलश में कौन सी सुबास मिलाई गई है ? " परिचारिका ने कहा --- " क्षमा करें महाराज , एक नई परिचारिका जो कल ही नियुक्त की गई थी , उसने आज के जल का प्रबंध किया , आज्ञा हो तो उसे सेवा में उपस्थित करूँ l " महाराज अनंगपाल ने उस दूसरी परिचारिका से पूछा तो वह बोली --- " महाराज उस जल में कुछ नहीं मिलाया था , वह जल तो मैं अपने मायके से लाई थी l " महाराज की उत्सुकता और बढ़ गई पूछने लगे --- " तुम्हारा मायका कहाँ है , यह जल वहां के किस कुएं का है या तालाब का जिसमें कमल खिले हों l l परिचारिका ने कहा --- " मेरा मायका गंधमादन पर्वत की तलहटी में है l वहां एक आश्रम है जिसमे एक योगी रहते है l उस आश्रम के समीप के एक कुंड का यह जल है l महाराज अनंगपाल बहुत प्रसन्न हुए और परिचारिका को पारितोषिक देकर उस आश्रम की ओर चल दिए l दो दिन की लगातार यात्रा के बाद महाराज वहां पहुंचे तो देखा वहां की प्रत्येक वस्तु उसी सुगंध से परिपूर्ण है l महाराज बड़े आश्चर्य चकित हुए और योगी को प्रणाम कर पूछा ---- " महाराज आपके आश्रम में यह भीनी -भीनी सुगंध कहाँ से आ रही है l " योगी ने कहा --- " महाराज ! इस आश्रम से सौ योजन की दूरी पर इस पर्वत पर एक वृक्ष है , मैं सदैव उसका ध्यान करता हूँ , यह सुगंध उसी वृक्ष की है l " योगी ने राजा को समझाया कि मनुष्य संकल्प बल से अपने जीवन को , अपने वातावरण को जैसा चाहे वैसा बना सकता जैसा वो चाहे l
9 March 2024
WISDOM ------
1 . हवा जोर से चलने लगी l धरती की धूल उड़ -उड़ कर आसमान पर छा गई l धरती से उठकर आसमान पर पहुँच जाने पर धूल को बड़ा गर्व हो गया l वह सहसा कह उठी --- " आज मेरे समान कोई भी ऊँचा नहीं l जल , थल , नभ के साथ दसों दिशाओं में मैं ही व्याप्त हूँ l " बादल ने धूल की गर्वोक्ति सुनी , और अपनी धाराएँ खोल दीं l देखते ही देखते आसमान से उतर कर धूल जमीन पर पानी के साथ दिखाई देने लगी , दिशाएं साफ़ हो गईं , धूल का नामो-निशान मिट गया l पानी के साथ बहती हुई धूल से धरती ने पूछा ---- " रेणुके ! तुमने अपने उत्थान -पतन से क्या सीखा ? " धूल ने कहा ---- " माता धरती ! मैंने सीखा कि उन्नति पाकर किसी को घमंड नहीं करना चाहिए l घमंड करने वाले मनुष्य का पतन अवश्य होता है l
2 . एक व्यक्ति ने महात्मा कन्फ्युशियस से प्रश्न किया ---- " महात्मन ! संयमित जीवन बिताकर भी मैं रोगी हूँ , ऐसा क्यों ? " कन्फ्यूशियस ने कहा ---- " भाई ! तुम शरीर से संयमित हो , पर मन से नहीं l अब जाओ ईर्ष्या -द्वेष करना बंद कर दो , मन से भी संयमी बनो , तो तुम्हे संयम का पूर्ण लाभ मिलेगा l "
8 March 2024
WISDOM -----
यह संसार हो या देवलोक , जिनके पास भी सत्ता , धन -वैभव , सौन्दर्य , यौवन ----जो भी है , उसे उसके खोने का भय सताता है l यह सुख जितना अधिक है , इस सुख को खोने का भय उतना ही अधिक है l सबसे ज्यादा भयभीत तो स्वर्ग के राजा इंद्र हैं l किसी को भी कठिन तप करते और आगे बढ़ते देख वे काँप जाते हैं , उनको अपने इन्द्रासन पर खतरा मंडराता दीखता है और फिर वे उसको पीछे धकेलने के लिए सब तरीके इस्तेमाल करने लगते हैं l विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए स्वर्ग की सबसे सुन्दर अप्सरा मेनका को भेज दिया l एक कथा है ----- एक महात्मा की तपस्या का यह प्रभाव था कि उनके आश्रम में शेर और गाय एक घाट पर पानी पीते थे l उनके तप से भयभीत इन्द्रासन काँप गया l देवराज इंद्र तरह -तरह के उपाय सोचने लगे कि कैसे इन महात्मा की तपस्या को भंग किया जाये l अंत में वे एक क्षत्रिय का वेश धारण कर उन महात्मा के आश्रम में गए और उन महात्मा से कहा --- " भगवान ! आप कुछ देर मेरी तलवार अपने पास रख लीजिए , मैं समीप के सरोवर में स्नान कर के आता हूँ l " महात्मा सरल स्वभाव के थे , तलवार को अपने पास सम्हाल कर रख लिया , लेकिन इंद्र वापस आए ही नहीं l किसी की अमानत को सुरक्षित वापस करना भी धर्म है , अत: अब वह महात्मा उस तलवार की रक्षा में अपना जप , तप साधना सब भूल गए l दिनचर्या का और तप का क्रम बिगड़ा तो उसका प्रभाव भी कम हो गया , यह देखकर इंद्र का भय भी कम हो गया
7 March 2024
WISDOM ------
महर्षि व्यास जी ने अठारह पुराण और महाभारत जैसे ग्रन्थ लिखे , फिर भी उन्हें शांति नहीं मिली l वे अपने आश्रम में बहुत उदास और चिंतित थे l तभी देवर्षि नारद वहां पहुंचे और उनकी उदासी व चिंता का कारण पूछा l व्यास जी ने कहा --- " हे देवर्षि ! मेरी चिंता का कारण यही है कि मैंने इतना सब कुछ लिखकर मानव को मानवता का सन्देश दिया , तो भी मनुष्य को ऐसी सद्बुद्धि नहीं मिली कि वह सुखमय जीवन जी सके l वह आज भी उसी तरह भटक रहा है और परोपकार करने के बजाय एक दूसरे को परेशान करने में लगा है l समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूँ ? " देवर्षि ने कहा --- " आपने पुराणों में ज्ञान -विज्ञान की बातें तो लिखी हैं , किन्तु भक्तिरस से परिपूर्ण साहित्य नहीं लिखा l अत: आप भक्तिरस की रचना कीजिए , जिससे जनता का कल्याण होगा और आपको भी शांति मिलेगी l " तब व्यास जी ने भगवान के समस्त अवतारों की लीला का वर्णन करते हुए श्रीमद् भागवत पुराण की रचना की l आज अनेक कथावाचक हैं जो श्रीमद् भागवत की कथा सुनाते हैं और लाखों की संख्या में लोग उन कथा को सुनते भी हैं लेकिन किसी के जीवन पर उस कथा का कोई असर नहीं पड़ता l सब भौतिक सुख की ओर भाग रहे हैं l लेकिन शांति कहीं नहीं है l सब कुछ होते हुए भी लोग क्यों परेशान है ? इसका प्रमुख कारण है ---- दुर्बुद्धि l लोगों का विवेक और सद्बुद्धि जाग्रत हो इसके लिए पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने ' प्रज्ञा -पुराण ' की रचना की और उसमे लघु कथाओं के माध्यम से हमें जीवन जीने की कला सिखाई है l सभी के जीवन में एक न एक समस्या अवश्य ही रहती है , परेशानियों का अंत नहीं है , लेकिन यदि सद्बुद्धि है तो मनुष्य विभिन्न समस्याओं से घिरा होने पर भी तनाव रहित शांत जीवन जी सकता है l
6 March 2024
WISDOM ------
प्रकृति के नियम सब के लिए एक समान हैं , उनमें जाति , धर्म , ऊँच -नीच , अमीर -गरीब किसी का कोई भेदभाव नहीं है l स्रष्टि के सञ्चालन के लिए जो नियम ईश्वर ने बनाए , उनका पालन भगवान स्वयं भी करते हैं l प्रकृति का नियम है कि जो इस संसार में आया है , उसे एक न एक दिन जाना है , मृत्यु अटल सत्य है l इसके साथ ही एक नियम यह भी है कि जिसे धरती पर आना है , निश्चित समय तक इस धरती पर रहना है , उस विधान को कोई बदल नहीं सकता l ----- महाभारत के युद्ध में सात योद्धाओं ने अन्याय पूर्ण तरीके से अभिमन्यु का वध कर दिया l भगवान श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा का पुत्र था अभिमन्यु l सुभद्रा का विवाह भगवान के प्रिय सखा अर्जुन से हुआ था l अभिमन्यु की मृत्यु का समाचार सुनकर सुभद्रा ने रोते हुए श्रीकृष्ण से कहा --- तुम तो स्वयं भगवान हो , अपने प्राणों से भी प्रिय भानजे की मृत्यु हो गई , और तुम रोक न सके l ' भगवान श्रीकृष्ण ने सुभद्रा को समझाया कि मैं भगवान अवश्य हूँ , लेकिन प्रकृति के नियम को मैं नहीं बदल सकता l अभिमन्यु इस धरती पर 17 वर्ष के लिए ही आया था l वक्त पूरा हो गया , फिर उसे कोई नहीं रोक सकता लेकिन इतनी कम आयु में भी उसने अपनी वीरता से महाराथियों के छक्के छुड़ा दिए , वीरता का कीर्तिमान स्थापित किया l मृत्यु और जन्म दोनों ही निश्चित है , उनमे फेर -बदल करना मनुष्य के हाथ में नही है l अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा गर्भवती थी , तब अश्वत्थामा ने पांडव वंश को समाप्त करने के लिए एक तिनके को अभिमंत्रित कर के उत्तर के गर्भ को नष्ट करने के लिए हवा में छोड़ दिया , मन्त्र बल से वह तिनका अस्त्र बन गया और उत्तरा की कोख में जा पहुंचा लेकिन गर्भ में पल रहे इस पुत्र को धरती पर आना ही था , निश्चित जीवन जी कर शुकदेव मुनि से श्रीमद् भागवत कथा का श्रवण करना ही था , इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने सूक्ष्म रूप से उत्तरा के गर्भ में प्रवेश कर गर्भस्थ शिशु की रक्षा की l अश्वत्थामा के छोड़े हुए अस्त्र के प्रहार को उन्होंने सुदर्शन चक्र से रोके रखा लेकिन जिस पल पुत्र का जन्म हुआ उस एक क्षण के लिए सुदर्शन चक्र को हटना पड़ा , इसलिए जन्म होते ही पुत्र की मृत्यु हो गई l तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपने संकल्प बल से , धर्म बल से प्रकृति से शिशु के जीवित होने के लिए प्रार्थना की l पुत्र ने तुरंत आँखें खोल दीं , उसका नाम परीक्षित रखा गया l जाको राखे साइयां , मार सके न कोय l बाल न बांका करि सके , जो जग बैरी होय l
WISDOM ----
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- ' इस स्रष्टि की रचना के बाद भगवान ने इस विशाल ब्रह्माण्ड के सुव्यवस्थित सञ्चालन हेतु कुछ नियम व मर्यादायें स्थापित कीं तथा कर्मानुसार फल प्राप्ति का दृढ सिद्धांत बनाया ताकि सारा ब्रह्माण्ड और सभी जीवधारी एक निश्चित विधि -विधान के अनुसार चल सकें l आदर्श नियम वही है जिसका बनाने वाला भी उसका पालन करे l भगवान ने कर्मफल व्यवस्था बनाई और स्वयं ही न्यायधीश का पद सम्हाला l जिस तरह बीज बोने के तुरंत बाद फल की प्राप्ति नहीं होती , उसी प्रकार इस व्यवस्था की यह विशेषता है कि कर्मफल तत्काल नहीं मिलता l समयानुसार हमें अपने कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है l ' जो व्यक्ति पाप कर्म करते हैं , उन्हें तुरंत उसका परिणाम परिणाम नहीं भोगना पड़ता l यह काल निश्चित करता है कि उन्हें अपने कर्मों का फल कब और किस रूप में भोगना पड़ेगा l तुरंत फल न मिलने के कारण लोग कर्म फल व्यवस्था की गंभीरता को नहीं समझते और शीघ्र लाभ प्राप्त करने के लिए दुष्कर्मों की ओर प्रवृत्त होते हैं l कर्मफल व्यवस्था की उपयोगिता बताते हुए श्रीमद् भागवत में भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रिय सखा उद्धव से कहते हैं ----- " इतनी सशक्त व्यवस्था के होते हुए भी जरा देर से दंड प्राप्त होने के कारण जब इतनी अव्यवस्था फ़ैल जाती है तब यदि यह दंड विधान बिलकुल ही न रहा होता तब तो यह संसार चल ही न सका होता l " आदर्श नियम वही है जिसका बनाने वाला भी उसका पालन करे l संसार में अव्यवस्था तभी फैलती है जब नियम , आदर्श और उपदेश लोग दूसरों को देते हैं , स्वयं उसका पालन नहीं करते l मुखौटा लगाकर सारा ज्ञान -बखान दूसरों के लिए होता है l परदे के पीछे का सच केवल ईश्वर ही जानते हैं l