24 February 2025

WISDOM -----

 कलियुग  में  तीर्थयात्रा  भी   मनोरंजन  का   साधन  हैं   l  ऐसी  यात्रा  के  पीछे  जो  पवित्र  भाव  था  , वह  अब  नहीं  है   l  पं . श्रीराम  शर्मा  आचार्य  जी  लिखते  हैं  ----" तीर्थयात्रा  के  पीछे  तन  को  नहीं  , मन  को  निर्मल   करने  का   विधान  होने  के  कारण  ही   उसे  पूज्य  माना  गया  है  l  यदि  यह  पुण्य  विधान  न  रहे  तो  यह  निष्प्राण  ही  रहती  है  l  मनुष्य  का  स्वभाव  और  संस्कार  इतना  जटिल  होता  है  कि  तीर्थों  पर  तन  के  स्नान  से   उसमें  कोई  भी  परिवर्तन  नहीं  होता  l  अपने  विकारों  को  दूर  करने  के  लिए  मन  के  स्नान  की  जरुरत  है  l  "     मनुष्य  शरीर  होने  के  नाते  गलतियाँ  होना  स्वाभाविक  हैं  l  लोग  सोचते  हैं  तीर्थ स्नान   कर  सस्ते  में  पाप  धुल  जाएँ  ,  लेकिन  ऐसा  संभव  नहीं  है  l  आचार्य श्री  लिखते  हैं  ----- "  यदि  अपने  किए  पापों  का  भार  मन  पर  है  तो  यह   अपने  से  बाहर  भागने  से  नहीं  उतरता  l  सोने  को  निर्मल  होने  के  लिए  स्वयं  ही  आग  में  तपना  पड़ता  है  l  जो  पाप  किए  हैं  , उनका  प्रायश्चित  करो , पश्चाताप  करो  l  पश्चाताप  की  अग्नि  में  जलकर  ही  चेतना  निर्मल  होगी  l  एक  कथा  है  -----महाभारत  के  युद्ध  में  अपने  ही   भाई  -बंधुओं  की  हत्या  करने  के  कारण  उनके  मन  में  ग्लानि  थी , मन  में  शांति  नहीं  थी  l  तब   विदुर जी  ने  उन्हें  तीर्थयात्रा  करने  की  सलाह  दी  l  माता  कुंती  और  द्रोपदी  के  साथ  वे  तीर्थयात्रा  को  निकल  पड़े  l  मार्ग  में  प्रथम  पड़ाव  पर  वे  व्यासजी  के  आश्रम   में  रुके  l  वहां  से  चलते  समय  व्यासजी  ने  उन्हें  एक  तुम्बा  दिया   और  युधिष्ठिर  से  कहा  जब  तुम  तीर्थ स्नान  करो  तो  इस  तुम्बे  को  भी  दो -चार   डुबकी  लगवा  देना  , यह  भी  निर्विकार  हो  जायेगा  l  युधिष्ठिर  ने  ऐसा  ही  किया  सब  तीर्थों  में  अपने  साथ  तुम्बे  को  भी    स्नान  कराया  l   तीर्थयात्रा  से  लौटते  समय  वे  सब   अंतिम  पड़ाव  पर  व्यास जी  आश्रम  में  पहुंचे  और   उन्हें  वह  तुम्बा  देते  हुए  कहा   कि  हमने  इसे  हर  पवित्र  नदी  में  स्नान  कराया  है  l  व्यास जी  ने  भीम  से  कहा  ---इस  तुम्बे  को  तोड़कर  लाओ  , प्रसाद  के  रूप  में  इसे   खाकर  हम  पुण्य  लाभ  प्राप्त  करेंगे  l  उनकी  आज्ञा    से  भीम  ने  उसे  तोड़ा   और  सबके  सामने  एक -एक  टुकड़ा  रख  दिया  , शेष  व्यासजी  के  सामने  रख  दिया  l  व्यास जी  ने  एक  टुकड़ा  चखा  , वह  तो  कड़वा  था  , उन्होंने   बुरा  सा  मुँह  कर  के  उसे  थूक  दिया   और  कहा  --- इतना  तीर्थ स्नान  कर  के  भी  इसकी  कड़वाहट  नहीं  गई  , यह  मीठा  नहीं  हुआ  l '  तब  कुंती  ने  कहा  --- प्रभो  !  यह  तो  कड़वा  ही  होता  है  l  क्या  स्वभाव  भी  कभी  बदल  सकता  है  ?  प्रकृति  के  नियम  कभी  भंग  नहीं  होते   l '  तब  व्यासजी  ने  उन्हें  समझाया  --- 'प्रकृति  के  नियम  तो  सनातन  हैं  , वे  कैसे  बदल  सकते  हैं   किन्तु  स्वभाव  के  ऊपर  जो   विकृतियाँ   छा   जाती  हैं   उन्हें  तन  के  नहीं , मन  के  स्नान  से  हटाया  जा  सकता  है  l "