इस युग की एक कड़वी सच्चाई है कि इतने अधिक संत , विभिन्न प्रकार के साधु , उपदेशक , स्वयं को सन्मार्गी दिखाने वाले लाखों -करोड़ों की संख्या में है , इसलिए यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि इतने अधिक सज्जन , ईश्वर विश्वासी इस धरती पर हैं , तो फिर कलियुग क्यों है ? लोगों के जीवन में दुःख , तनाव , बीमारियाँ क्यों हैं ? सस्ते , महंगे , बड़े -छोटे सब अस्पताल क्यों भरे हैं ? निराशा में लोग आत्महत्या कर रहे हैं ? अदालतें विभिन्न अपराधिक मुकदमों से भरी हुई हैं l इन सबका एक सबसे बड़ा कारण यह है कि अब आध्यात्मिक होने का ढोंग ज्यादा है , सब को अपनी दुकान सजाए रखने की चिंता है l भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य की तरह कोई भी अपने सुख से समझौता नहीं करना चाहता है l सभी पता नहीं किस से भयभीत रहते हैं कि कहीं विदुर जी की तरह वनवास न भोगना पड़े ? l अच्छे , सच्चे और अध्यात्म में उच्च शिखर पर पहुंचे लोग बहुत हैं जिनके पुण्यों के बल पर यह धरती टिकी है लेकिन इनके अनुपात में असुरता बहुत ज्यादा है l l असुर बनना बहुत सरल है , पानी बहुत तेजी से नीचे गिरता है , लेकिन ऊपर चढ़ाने के लिए बहुत प्रयास करना पड़ता है l अध्यात्म की राह बहुत कठिन है , इसमें भावनाओं की पवित्रता अनिवार्य है l यह सबके लिए संभव नहीं है इसलिए व्यक्ति बाहरी रूप से स्वयं को आध्यात्मिक दिखाता है लेकिन उसके मन में और मन से भी अधिक गहराई में क्या छुपा है इसे तो फिर ईश्वर ही जानते हैं l जैसा कुछ मन में छुपा है वैसे ही लोगों को व्यक्ति आकर्षित करता है इसलिए असुरता बढ़ती जाती है l पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं --- ' सुगंध की अपेक्षा दुर्गन्ध का विस्तार अधिक होता है l एक नशेवाला , जुआरी , दुर्व्यसनी , कुकर्मी अनेकों संगी साथी बना सकने में सहज सफल हो जाता है लेकिन आदर्शों का , श्रेष्ठता का अनुकरण करने की क्षमता हलकी होती है l कुकुरमुत्तों की फसल और मक्खी -मच्छरों का परिवार भी तेजी से बढ़ता है पर हाथी की वंश वृद्धि अत्यंत धीमी गति से होती है l