स्वामी विवेकानंद ने योग सीखने आई एक युवती से कहा था कि तुम्हे इस मार्ग पर गतिशील होने में कई जन्म लगेंगे l वह युवती कक्ष में आकर बैठी ही थी और सिर्फ इतना ही पूछ पाई थी कि मुझे सिद्धि प्राप्त करने में कितना समय लगेगा ? कितने महीनों में मैं साधना पूरी कर संकूंगी ? स्वामी जी ने इस प्रश्न का उत्तर दिया था और कारण भी तुरंत बता दिया था कि कक्ष में प्रवेश करने से पहले तुमने जूते ऐसे उतारे , जैसे उन्हें फेंक रही हो l कुरसी की बांह लगभग मरोड़ते हुए अंदाज में खींची और धमककर बैठ गई l फिर बैठे -बैठे ही इसे मेज के पास घसीटते हुए से खींचा और व्यस्थित किया l एक मिनट के इस व्यवहार में स्वामी जी ने न तो हड़बड़ी को कारण बताया और न ही फूहड़ता को l युवती ने पूछा भी नहीं था और स्वामी जी ने कारण बताया कि हम जिन वस्तुओं को काम में लाते हैं , जो हमारी जीवन यात्रा और स्थिति में सहायक हैं और जो हमारे व्यक्तित्व के ही एक अंग हैं , उनके प्रति क्रूरता हमारी चेतना के स्तर को दर्शाती है l दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं , व्यक्तियों और प्राणियों के प्रति भी मन में संवेदना नहीं है , तो विराट अस्तित्व से किसी व्यक्ति का तादात्म्य कैसे जुड़ सकता है ? अपने आसपास के जगत के प्रति जो संवेदनशील नहीं है , वह परमात्मा के प्रति कैसे खुल सकता है ? संवेदना व्यक्ति को विराट के प्रति खोलती है , उसे ग्रहणशील बनाती है l स्वामी चिन्मयानन्द ने लिखा है कि संवेदनशील व्यक्ति जड़ वस्तुओं के प्रति भी इस तरह व्यवहार करता है जैसे वे उसके अति आत्मीय स्वजन हों l न केवल आत्मीय स्वजन हों , बल्कि उनके अपने ही शरीर का एक हिस्सा हों l
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