महाभारत के विभिन्न प्रसंग हमें, जीवन जीने की कला सिखाते हैं ---- ऋषि कहते हैं यदि मनुष्य में विवेक और वैराग्य हो तो वह अनेक समस्याओं से मुसीबतों से बचकर सुरक्षित बाहर निकल सकता है l युधिष्ठिर धर्मराज थे , उनके भीतर विवेक था , क्या सही है और क्या गलत है , इसे वह अच्छी तरह जानते थे l वे जानते थे कि जुआ खेलना उचित नहीं है l जुआ खेलने के दुष्परिणाम वे अच्छी तरह जानते थे लेकिन फिर भी जब दुर्योधन ने उन्हें जुआ खेलने को आमंत्रित किया , तब उन्होंने इस आमंत्रण को सहज स्वीकार कर लिया l हारे हुए जुआरी के पीछे ऐसा दुर्भाग्य पड़ जाता है कि पांचों पांडवों को द्रोपदी सहित चौदह वर्ष वनवास भोगना पड़ा , राजा विराट के यहाँ वेश बदलकर नौकर की तरह रहना पड़ा l इसी तरह यदि हमारे मन में वैराग्य का भाव नहीं है अर्थात हम किसी के भी लालच में आ जाते हैं तो उसका दुष्परिणाम भी भोगना पड़ता है l जैसे कर्ण को सूतपुत्र होने के कारण अपमानित और उपेक्षित होना पड़ता था l उसकी वीरता को भी उचित सम्मान नहीं मिला l दुर्योधन कूटनीतिज्ञ था l वह समझ गया था कि कर्ण जैसा वीर उसके पक्ष में होगा तो उसके आगे की राह आसान हो जाएगी l उसने कर्ण को अंगदेश का राजा बनाने का और यथोचित सम्मान दिए जाने का लालच दिया l कर्ण जानता था कि दुर्योधन अत्याचारी , अन्यायी है लेकिन फिर भी उसने उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया l कहते हैं यदि कर्ण दुर्योधन के साथ न होता तो शायद दुर्योधन महाभारत के महायुद्ध को करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता l कर्ण ने विवेक और वैराग्य से काम नहीं लिया l अत्याचारी का साथ देने का जो परिणाम होता है वही उसका हुआ l