' डॉ. तहाहुसेन ने मन की सामर्थ्य को जगाकर केवल अपनी प्रगति का पथ प्रशस्त नहीं किया वरन यह भी सिद्ध कर दिखाया कि मनुष्य का प्रारब्ध बड़ा नही है । हिम्मत हो तो पुरुषार्थ के द्वारा प्रारब्ध को भी सरल बनाया जा सकता है । '
जब तहाहुसेन मात्र तीन वर्ष के थे , खेलते हुए पत्थर से टकरा गये जिससे माथा फूट गया और आँखों की रोशनी चली गई । वे गाँव मे एक पत्थर पर उदास बैठे रहते थे, एक दिन एक पड़ोस की स्त्री ने कह दिया--- " भगवान ऐसी जिंदगी से मौत अच्छी थी । " बालक को बात चुभ गई और वह आहट लेता हुआ कुंए की ओर बढ़ चला ।
पड़ोस के एक मौलवी साहब ने देखा तो वे बालक का इरादा समझ गये, बालक कुंए में छलांग लगाने की युक्ति बना रहा था कि मौलवी साहब ने दौड़ कर उसे बचा लिया । उन्होंने बालक तहाहुसेन को समझाया--- " तुम्हारी आँखे छिन गईं पर अभी तुम्हारे पास मन है और मन में एक संकल्प शक्ति रहती है, उसे जगाओ तो तुम वह काम कर सकते हो जो आँख वाले न कर सकें । "
उन्होंने कहा-- " तुम एक बार यह निश्चय कर लो कि अमुक सफलता प्राप्त करनी है फिर उसकी पूर्ति के लिए अपनी सम्पूर्ण चेष्टाओं के साथ लग जाओ तो तुम देखोगे कि यह मन ही आँखे दे देगा, इतनी प्रचंड शक्ति पास रखकर भी तुम घबड़ाते हो । "
बालक ने कहा---" बाबा, अभी तक किसी ने यह बात नहीं बताई, अब मैं आपके दिखाए रास्ते पर चलूँगा, मेरी निराशा दूर हो गई । " अब बालक तहाहुसेन दूसरों से सुनकर कुरान शरीफ पढ़ने लगा, कुछ ही दिनों में कुरान कंठस्थ हो गई, इसके बाद वह ' अलजहर ' में शिक्षा प्राप्त करने लगा । 1914 में उसने काहिरा विश्वविद्यालय से पी. एच. डी. की । बौद्धिक विकास के साथ उनने साहित्य की सेवा भी की, 1946 में मिस्र के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार घोषित किये गये, 1950 में मिस्र में मंत्री बनाये गये । यूनेस्को के डायरेक्टर जनरल पद के लिए भी उन्हें बुलाया गया पर वे जा न सके ।
मिस्र में आज भी उनका उदाहरण देकर लोग हारे हुए, परिस्थितियों से घबड़ाये हुए असफल व्यक्तियों को हिम्मत बँधाया करते हैं, कहते हैं--- देखो तहा को--- तीन वर्ष की आयु में ही अँधा हो गया, कोई साधन न थे पर किस द्रढ़ता, हिम्मत और शान के साथ अपने जीवन की पतवार पार ले गया , असहाय और अपंग व्यक्ति जब अपनी संकल्प शक्ति को जगाकर बड़े मनोरथ पूर्ण कर लेते हैं तो शारीरिक द्रष्टि से समर्थ व्यक्तियों को निराश नहीं होना चाहिए ।"
जब तहाहुसेन मात्र तीन वर्ष के थे , खेलते हुए पत्थर से टकरा गये जिससे माथा फूट गया और आँखों की रोशनी चली गई । वे गाँव मे एक पत्थर पर उदास बैठे रहते थे, एक दिन एक पड़ोस की स्त्री ने कह दिया--- " भगवान ऐसी जिंदगी से मौत अच्छी थी । " बालक को बात चुभ गई और वह आहट लेता हुआ कुंए की ओर बढ़ चला ।
पड़ोस के एक मौलवी साहब ने देखा तो वे बालक का इरादा समझ गये, बालक कुंए में छलांग लगाने की युक्ति बना रहा था कि मौलवी साहब ने दौड़ कर उसे बचा लिया । उन्होंने बालक तहाहुसेन को समझाया--- " तुम्हारी आँखे छिन गईं पर अभी तुम्हारे पास मन है और मन में एक संकल्प शक्ति रहती है, उसे जगाओ तो तुम वह काम कर सकते हो जो आँख वाले न कर सकें । "
उन्होंने कहा-- " तुम एक बार यह निश्चय कर लो कि अमुक सफलता प्राप्त करनी है फिर उसकी पूर्ति के लिए अपनी सम्पूर्ण चेष्टाओं के साथ लग जाओ तो तुम देखोगे कि यह मन ही आँखे दे देगा, इतनी प्रचंड शक्ति पास रखकर भी तुम घबड़ाते हो । "
बालक ने कहा---" बाबा, अभी तक किसी ने यह बात नहीं बताई, अब मैं आपके दिखाए रास्ते पर चलूँगा, मेरी निराशा दूर हो गई । " अब बालक तहाहुसेन दूसरों से सुनकर कुरान शरीफ पढ़ने लगा, कुछ ही दिनों में कुरान कंठस्थ हो गई, इसके बाद वह ' अलजहर ' में शिक्षा प्राप्त करने लगा । 1914 में उसने काहिरा विश्वविद्यालय से पी. एच. डी. की । बौद्धिक विकास के साथ उनने साहित्य की सेवा भी की, 1946 में मिस्र के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार घोषित किये गये, 1950 में मिस्र में मंत्री बनाये गये । यूनेस्को के डायरेक्टर जनरल पद के लिए भी उन्हें बुलाया गया पर वे जा न सके ।
मिस्र में आज भी उनका उदाहरण देकर लोग हारे हुए, परिस्थितियों से घबड़ाये हुए असफल व्यक्तियों को हिम्मत बँधाया करते हैं, कहते हैं--- देखो तहा को--- तीन वर्ष की आयु में ही अँधा हो गया, कोई साधन न थे पर किस द्रढ़ता, हिम्मत और शान के साथ अपने जीवन की पतवार पार ले गया , असहाय और अपंग व्यक्ति जब अपनी संकल्प शक्ति को जगाकर बड़े मनोरथ पूर्ण कर लेते हैं तो शारीरिक द्रष्टि से समर्थ व्यक्तियों को निराश नहीं होना चाहिए ।"
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