' अवकाश के समय का उपयोग कर संसार को भारत की महान संस्कृति के तत्व ज्ञान से अवगत करा देने वाले प्रो. विल्सन का भारतीय समाज बारम्बार आभारी है, इनके ही प्रधान शिष्य , मेधावी अनुयायी और उतराधिकारी मैक्समूलर थे । '
1908 में एक अंग्रेज युवक इंग्लैंड से भारतीय चिकित्सा सेवा विभाग का अधिकारी बनकर आया, उन्हें रासायनिक परख विज्ञान का अनुभव था अत: उसे कलकत्ता की टकसाल में परख अधिकारी बना दिया । इस पद पर काम कम था इसलिए अधिकांश समय फालतू ही रहता था ।
विभाग के अन्य अधिकारियों ने युवक को खाली समय में मौज-मजे उड़ाने की प्रेरणा दी परन्तु युवक को यह अच्छा नहीं लगा वह कोई ऐसा काम तलाशने लगा जिसमे खाली समय का उपयोग किया जा सके ।
यह परख अधिकारी युवक जों बाद में प्रो. एच, एच. विल्सन के नाम से पाश्चात्य देशों तथा भारत के सांस्कृतिक जगत में विख्यात हुए ने समय का उपयोग इतनी कुशलता के साथ किया कि भारत से विदा होते समय वे संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान तथा वेदों के आद्दय आंग्ल अनुवादक के रूप में माने जाने लगे ।
भारत आने तक उन्हें यह पता ही नहीं था कि संस्कृत नाम की कोई भाषा है भी । एच. विल्सन ने परख अधिकारी रह्ते हुए अपना फालतू समय भारतीय जन-जीवन का अध्ययन करने में लगाया । बड़ी कठिनाइयों का सामना कर, यहाँ के पंडितों को समझाकर, विद्वानों की सहायता से संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया ओर फिर वे भारतीय तत्वज्ञान की दिशा में प्रगति करते गये ।
हिन्दू धर्म और संस्कृति के अध्ययन हेतु बनायीं गई एशियाटिक सोसायटी के वे सदस्य भी बने । सर्वप्रथम उन्होंने मेघदूत और विष्णुपुराण का अंग्रेजी में अनुवाद किया । संसार संस्कृत साहित्य के रत्नकोषों को देखकर आश्चर्यचकित रह गया । संस्कृत भाषा के अध्ययन कों सुलभ बनाने के लिए उन्होंने एक शब्दकोष तैयार किया और संसार की सभी भाषाओँ से अधिक इस भाषा को समृद्ध साबित किया । 1833 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में संस्कृत के प्रोफेसर बनकर यहाँ से वापस चले गये । जाते समय वे अपने साथ वेदों की संहिताएँ और आर्य साहित्य भी लेते गये | उन्होंने सर्वप्रथम ऋग्वेद का अंग्रेजी अनुवाद किया जो आज भी यूरोप के वेद विद्दार्थियों को पाठ्य ग्रन्थ के रूप में पढ़ाया जाता है । सायण भाष्य पर आधारित उनका अनुदित ऋग्वेद प्रकाशित होते ही यूरोपीय देशों में तहलका मच गया, संसार के लोग आश्चर्यचकीत रह गये कि इतना समर्थ और संपन्न संस्कृति वाला देश गुलाम कैसे बना । प्रो. विल्सन ने भारत का एतिहासिक अध्ययन कर उन कारणों को भी उद्घाटित किया ।
1908 में एक अंग्रेज युवक इंग्लैंड से भारतीय चिकित्सा सेवा विभाग का अधिकारी बनकर आया, उन्हें रासायनिक परख विज्ञान का अनुभव था अत: उसे कलकत्ता की टकसाल में परख अधिकारी बना दिया । इस पद पर काम कम था इसलिए अधिकांश समय फालतू ही रहता था ।
विभाग के अन्य अधिकारियों ने युवक को खाली समय में मौज-मजे उड़ाने की प्रेरणा दी परन्तु युवक को यह अच्छा नहीं लगा वह कोई ऐसा काम तलाशने लगा जिसमे खाली समय का उपयोग किया जा सके ।
यह परख अधिकारी युवक जों बाद में प्रो. एच, एच. विल्सन के नाम से पाश्चात्य देशों तथा भारत के सांस्कृतिक जगत में विख्यात हुए ने समय का उपयोग इतनी कुशलता के साथ किया कि भारत से विदा होते समय वे संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान तथा वेदों के आद्दय आंग्ल अनुवादक के रूप में माने जाने लगे ।
भारत आने तक उन्हें यह पता ही नहीं था कि संस्कृत नाम की कोई भाषा है भी । एच. विल्सन ने परख अधिकारी रह्ते हुए अपना फालतू समय भारतीय जन-जीवन का अध्ययन करने में लगाया । बड़ी कठिनाइयों का सामना कर, यहाँ के पंडितों को समझाकर, विद्वानों की सहायता से संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया ओर फिर वे भारतीय तत्वज्ञान की दिशा में प्रगति करते गये ।
हिन्दू धर्म और संस्कृति के अध्ययन हेतु बनायीं गई एशियाटिक सोसायटी के वे सदस्य भी बने । सर्वप्रथम उन्होंने मेघदूत और विष्णुपुराण का अंग्रेजी में अनुवाद किया । संसार संस्कृत साहित्य के रत्नकोषों को देखकर आश्चर्यचकित रह गया । संस्कृत भाषा के अध्ययन कों सुलभ बनाने के लिए उन्होंने एक शब्दकोष तैयार किया और संसार की सभी भाषाओँ से अधिक इस भाषा को समृद्ध साबित किया । 1833 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में संस्कृत के प्रोफेसर बनकर यहाँ से वापस चले गये । जाते समय वे अपने साथ वेदों की संहिताएँ और आर्य साहित्य भी लेते गये | उन्होंने सर्वप्रथम ऋग्वेद का अंग्रेजी अनुवाद किया जो आज भी यूरोप के वेद विद्दार्थियों को पाठ्य ग्रन्थ के रूप में पढ़ाया जाता है । सायण भाष्य पर आधारित उनका अनुदित ऋग्वेद प्रकाशित होते ही यूरोपीय देशों में तहलका मच गया, संसार के लोग आश्चर्यचकीत रह गये कि इतना समर्थ और संपन्न संस्कृति वाला देश गुलाम कैसे बना । प्रो. विल्सन ने भारत का एतिहासिक अध्ययन कर उन कारणों को भी उद्घाटित किया ।
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