' जिंदगी जीना ही है तो रोने-कलपने से क्या लाभ । बेहतर यही है कि जितने समय जिया जाये, आगे बढ़ते हुए, हँसते-खेलते हुए, वर्तमान स्थितियों में ही प्रगति करते हुए जिएँ । '
बचपन में विषूचिका के महारोग के कारण डॉ. सुबोधराय की नेत्र-ज्योति सदा-सदा के लिए चली गई थी । किसी महात्मा की प्रेरणा से उनमे आत्मविश्वास जागा और उन्होंने अपनी माँ से कहा--- " माँ, मुझे मेरे स्कूल में भर्ती करवा दो । मैं पढूँगा और वास्तविक ज्योति को प्राप्त करूँगा, आगे बढ़कर दिखाऊंगा । मैं विद्वान बनूँगा, माँ ! विद्वान । " 1919 में उनके माता-पिता ने उन्हें अंधशाला में प्रवेश दिलाया । अपनी लगन और निष्ठा से वे आगे बढ़ते गये । कलकत्ता के प्रेसीडेन्सी कालेज से उन्होंने बी.ए. आनर्स किया और एम.ए में पूरे विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया । उन दिनों कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति थे डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी । उनकी पारखी आँखों ने इनकी प्रतिभा को देखा कि यह युवक उन हजारों-लाखों व्यक्तियों के लिए आशा का दीप बन सकता है जो इसी की तरह अंधे हैं ।
विश्वविद्यालय की ओर से 1939 में उन्हें नेत्रहीनो के लिए व्यवहार शिक्षा पद्धति का अध्ययन करने के लिए अमेरिका और योरोप भेजा गया । एक वर्ष बाद वे भारत लौटे । यहां उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइन्सेज में अध्यापन कार्य किया । वे अपने लक्ष्य के प्रति निष्ठावान रहे और उन्होंने ' ऑल इण्डिया लाइट हाउस फॉर द ब्लाइंड ' की स्थापना की । वे स्वयं इस संस्थान के निर्देशक तथा सचिव रहे ।
एक-एक क्षण का सदुपयोग और और एक-एक घड़ी के श्रम का विवेकपूर्ण उपयोग उनके जीवन का मूलमंत्र बना और उन्होंने नेत्रहीनो के लिए वही आँख खोलने का प्रयास अभियान स्तर पर चलाया जो उन्होंने स्वयं के लिए किया । उन्होंने अंध समस्या पर पुस्तकें भी लिखी । उन्होंने अपने जीवन का उदाहरण सामने रख कर आदर्श प्रस्तुत किया ।
बचपन में विषूचिका के महारोग के कारण डॉ. सुबोधराय की नेत्र-ज्योति सदा-सदा के लिए चली गई थी । किसी महात्मा की प्रेरणा से उनमे आत्मविश्वास जागा और उन्होंने अपनी माँ से कहा--- " माँ, मुझे मेरे स्कूल में भर्ती करवा दो । मैं पढूँगा और वास्तविक ज्योति को प्राप्त करूँगा, आगे बढ़कर दिखाऊंगा । मैं विद्वान बनूँगा, माँ ! विद्वान । " 1919 में उनके माता-पिता ने उन्हें अंधशाला में प्रवेश दिलाया । अपनी लगन और निष्ठा से वे आगे बढ़ते गये । कलकत्ता के प्रेसीडेन्सी कालेज से उन्होंने बी.ए. आनर्स किया और एम.ए में पूरे विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया । उन दिनों कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति थे डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी । उनकी पारखी आँखों ने इनकी प्रतिभा को देखा कि यह युवक उन हजारों-लाखों व्यक्तियों के लिए आशा का दीप बन सकता है जो इसी की तरह अंधे हैं ।
विश्वविद्यालय की ओर से 1939 में उन्हें नेत्रहीनो के लिए व्यवहार शिक्षा पद्धति का अध्ययन करने के लिए अमेरिका और योरोप भेजा गया । एक वर्ष बाद वे भारत लौटे । यहां उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइन्सेज में अध्यापन कार्य किया । वे अपने लक्ष्य के प्रति निष्ठावान रहे और उन्होंने ' ऑल इण्डिया लाइट हाउस फॉर द ब्लाइंड ' की स्थापना की । वे स्वयं इस संस्थान के निर्देशक तथा सचिव रहे ।
एक-एक क्षण का सदुपयोग और और एक-एक घड़ी के श्रम का विवेकपूर्ण उपयोग उनके जीवन का मूलमंत्र बना और उन्होंने नेत्रहीनो के लिए वही आँख खोलने का प्रयास अभियान स्तर पर चलाया जो उन्होंने स्वयं के लिए किया । उन्होंने अंध समस्या पर पुस्तकें भी लिखी । उन्होंने अपने जीवन का उदाहरण सामने रख कर आदर्श प्रस्तुत किया ।
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