पंजाब विश्वविद्यालय से एम. ए करने के बाद वे इंग्लैंड गये और लन्दन-विश्वविद्यालय से
पी. एचडी. तथा रायल विश्वविद्यालय से डी. लिट कर स्वदेश लौटे । अंग्रेजी के प्रकांड विद्वान और विदेश में रहकर भी जिनकी वेश - भूषा , आचार-विचार, रहन-सहन में विदेशियत न थी---- वे थे राष्ट्र-भाषा-हिन्दी के अनन्य शिल्पी , भारतीय संस्कृति के अनन्य उपासक----- आचार्य रघुवीर ।
हिन्दी को उसका स्थान दिलाने के लिए उन्होंने बड़े प्रयास किये । हिन्दी में पारिभाषिक शब्दों की कमी को दूर करने के लिए नये शब्द गढ़ने का संकल्प किया और अपने जीवन काल में चार लाख नये शब्दों की रचना कर हिन्दी को समृद्ध करने का गौरवशाली कार्य उन्होंने पूरा किया । इस महान देन को देश नहीं भूल सकता ।
आचार्य रघुवीर ने योरोप और एशियाई देशों का कई बार भ्रमण केवल इसी द्रष्टि से किया कि हमारी जो दुर्लभ उपलब्धियां वहां चली गई हैं, उन्हें लाया जा सके साथ ही विदेशी सभ्यता और संस्कृति में जो आदर्श और यथार्थवादी तत्व है, उनका ज्ञान प्राप्त कर भारतीय संस्कृति में समावेश किया जा सके ।
अनेक ग्रन्थ जो भारतवर्ष में लुप्त हो चुके थे, उन्हें योरोप और एशिया से लाकर उनका अनुवाद, संपादन और प्रकाशन का बड़ा भारी कार्य, जो कोई बड़ी संस्था भी नहीं कर सकती थी, उतना आपने अकेले किया ।
आचार्य रघुवीर 55 वर्ष की आयु में भी प्रतिदिन 16 से 20 घंटे तक स्वाध्याय, लेखन और संपादन का कार्य करते थे । उनका एक ही लक्ष्य था--- भारतीय-संस्कृति का उत्थान और विकास हो, वे कहते थे भारतीय-संस्कृति जैसी पवित्रता, उज्ज्वलता और निश्छलता अन्य कहीं नहीं है ।
अन्य प्रादेशिक भाषाओँ को भी उन्होंने महत्व दिया, वे सबको संस्कृत की बेटी और हिन्दी की बहिन सरीखी मानते थे । दिल्ली में ' सर्वभाषा-सम्मलेन ' आयोजित करने का श्रेय उन्ही को है, जिसकी अध्यक्षता मराठी-भाषी काका कालेलकर ने की थी । वे कहते थे उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम सम्पूर्ण देश को एक सूत्र में बाँधने वाली भाषा हिन्दी ही हो सकती है , उनका कहना था---
हमारे आध्यात्मिक-तत्वों की जानकारी देने वाली जो शब्दावली हिंदी में सरलता से उपलब्ध हो सकती है वह अंग्रेजी तो क्या, सारे संसार की भाषाओँ में नहीं है । इसलिए राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के लिए हिन्दी को उसका स्थान मिलना ही चाहिए ।
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