साहित्य एक शस्त्र है, एक सेतु है---- जन-मानस के उन्नयन का सुद्रढ़ आधार है । शर्मा जी साहित्यकार ही नहीं, साहित्य-सेवियों का निर्माण भी करते थे । साहित्य के द्वारा समाज का हित हो यह भावना ह्रदय में रखकर साहित्य की निष्काम-भाव से साधना करने का गुरु मन्त्र वे अपने शिष्यों को दिया करते थे ।
उनका सारा जीवन साहित्य की साधना में व्यतीत हुआ । वे हिन्दी व संस्कृत के विद्वान तो थे ही, फारसी व उर्दू के भी पंडित थे । उनकी लेखन शैली अनुपम थी ।
रेखाचित्र व संस्मरण इन दो विधाओं का प्रवर्तन हिन्दी में उन्होंने ही किया था । महाकवि अकबर और कविरत्न सत्यनारायण के जो संस्मरण उन्होंने लिखे हैं वे नये लेखकों को प्रेरणा व प्रकाश देने के लिए पर्याप्त हैं । उनकी लिखी हुई बिहारी-सतसई की टीका उनके ब्रज-भाषा प्रेम का अनूठा उदाहरण है ।
प्रशंसा करने और प्रोत्साहन देने में वे सिद्धहस्त थे । उन्होंने अपने इस देवगुण का प्रयोग व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कदापि नहीं किया, उसका प्रयोग उन्होंने लोकहित में किया । महाकवि शंकर उनकी पारखी द्रष्टि व गुण ग्राहकता पर जान देते थे । वे यही कहा करते थे----- " स्वयं को पीछे रखकर किसी को आगे बढ़ा देने की कला कोई शर्मा जी से सीखे । स्वयं चार-चार भाषाओँ के प्रकाण्ड पण्डित होते हुए भी वे अपने से कम सामर्थ्यवान की प्रशंसा कर उसे अपने से अधिक यशस्वी बनाने में पीछे नहीं रहते थे । " भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को अच्छे लेखक बनाने का बहुत कुछ श्रेय उनके लेखन-गुरु पं. पद्मसिंह शर्मा को जाता है । पद्मसिंह जी ने सरस्वती की तरह अज्ञात रहकर हिन्दी को कई नये लेखक दिये । उन्होंने परिचयहीन रहकर निष्काम साधना को अधिक महत्व दिया ।
उनका सारा जीवन साहित्य की साधना में व्यतीत हुआ । वे हिन्दी व संस्कृत के विद्वान तो थे ही, फारसी व उर्दू के भी पंडित थे । उनकी लेखन शैली अनुपम थी ।
रेखाचित्र व संस्मरण इन दो विधाओं का प्रवर्तन हिन्दी में उन्होंने ही किया था । महाकवि अकबर और कविरत्न सत्यनारायण के जो संस्मरण उन्होंने लिखे हैं वे नये लेखकों को प्रेरणा व प्रकाश देने के लिए पर्याप्त हैं । उनकी लिखी हुई बिहारी-सतसई की टीका उनके ब्रज-भाषा प्रेम का अनूठा उदाहरण है ।
प्रशंसा करने और प्रोत्साहन देने में वे सिद्धहस्त थे । उन्होंने अपने इस देवगुण का प्रयोग व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कदापि नहीं किया, उसका प्रयोग उन्होंने लोकहित में किया । महाकवि शंकर उनकी पारखी द्रष्टि व गुण ग्राहकता पर जान देते थे । वे यही कहा करते थे----- " स्वयं को पीछे रखकर किसी को आगे बढ़ा देने की कला कोई शर्मा जी से सीखे । स्वयं चार-चार भाषाओँ के प्रकाण्ड पण्डित होते हुए भी वे अपने से कम सामर्थ्यवान की प्रशंसा कर उसे अपने से अधिक यशस्वी बनाने में पीछे नहीं रहते थे । " भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को अच्छे लेखक बनाने का बहुत कुछ श्रेय उनके लेखन-गुरु पं. पद्मसिंह शर्मा को जाता है । पद्मसिंह जी ने सरस्वती की तरह अज्ञात रहकर हिन्दी को कई नये लेखक दिये । उन्होंने परिचयहीन रहकर निष्काम साधना को अधिक महत्व दिया ।
No comments:
Post a Comment