1783 में ब्रिटिश सरकार ने न्यायधीश के रूप में सर विलियम जोन्स को कलकत्ता जाने का आदेश दिया । उनके ह्रदय में भारत के प्रति बड़ा सम्मान था और उनकी यह उत्कृष्ट अभिलाषा थी कि वे देवभाषा संस्कृत का ज्ञान अर्जित करें । सर विलियम जोन्स ने हैरो और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में शिक्षा प्राप्त की थी । वे लैटिन और यूनानी भाषाओँ के प्रकाण्ड विद्वान थे, हिब्रू, अरबी और फारसी का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था । उन्होंने कानून का भी अध्ययन किया, वे सफल बैरिस्टर थे ।
भारत आने के बाद उन्होंने प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान विल्किन के सहयोग से ' एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल ' की स्थापना की । सर विलियम जोन्स संस्कृत का अध्ययन करना चाहते थे , उस समय भारतीय समाज मूढ़मान्यताओं से ग्रसित था, अत: उन्हें संस्कृत सीखने के लिए बड़ी कष्ट-साध्य साधना करनी पड़ी ।
बड़ी मुश्किल से एक पंडित उन्हें संस्कृत सिखाने को राजी हुए लेकिन शर्त थी कि संस्कृत सीखने के लिए सर जोन्स एक अलग कमरा रखें, जिसमे कोई अन्य कार्य न हो, उसकी सफाई हिन्दू नौकर करे और पाठ आरम्भ करने से पहले उसे गंगाजल से शुद्ध किया जाये ।
पूरे अध्ययन काल में उन्हें मांसाहार छोड़कर शुद्ध शाकाहारी बनना पड़ा । पढ़ते समय वे बिना आसन के फर्श पर बैठते और उनका मुँह दीवार की ओर रहता, कहीं यवन की द्रष्टि संस्कृत पंडित को मलिन न कर दे । जब सर जोन्स अपना पाठ पूरा कर लेते तो वह स्थान पानी से धोकर शुद्ध किया जाता फिर आचार्य महोदय विदा होते ।
उनमे अदभुत ज्ञान पिपासा थी, इतना कष्ट सहन कर बड़ी लगन से उन्होंने संस्कृत सीखी । इस ज्ञानतपस्या के पीछे उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं था, वे भारतीय संस्कृति के प्रति अनन्य समर्पित थे । कुछ ही समय में उन्होंने संस्कृत का ज्ञान प्राप्त कर लिया फिर कालीदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम का और हितोपदेश का अनुवाद किया , इन ग्रन्थों के साहित्य और लालित्य से जब अंग्रेजों का परिचय हुआ तो भारत के संबंध में उन लोगों की भ्रान्तियाँ टूट गईं जो केवल पराधीन होने के कारण भारतीय समाज और संस्कृति को हीन द्रष्टि से देखते थे । उन्होंने संस्कृत में कई मौलिक कविताएँ भी लिखी । भारतीय ज्ञान विज्ञान को प्रकाश में लाने के उनके योगदान को यह देश कभी भुला न सकेगा ।
भारत आने के बाद उन्होंने प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान विल्किन के सहयोग से ' एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल ' की स्थापना की । सर विलियम जोन्स संस्कृत का अध्ययन करना चाहते थे , उस समय भारतीय समाज मूढ़मान्यताओं से ग्रसित था, अत: उन्हें संस्कृत सीखने के लिए बड़ी कष्ट-साध्य साधना करनी पड़ी ।
बड़ी मुश्किल से एक पंडित उन्हें संस्कृत सिखाने को राजी हुए लेकिन शर्त थी कि संस्कृत सीखने के लिए सर जोन्स एक अलग कमरा रखें, जिसमे कोई अन्य कार्य न हो, उसकी सफाई हिन्दू नौकर करे और पाठ आरम्भ करने से पहले उसे गंगाजल से शुद्ध किया जाये ।
पूरे अध्ययन काल में उन्हें मांसाहार छोड़कर शुद्ध शाकाहारी बनना पड़ा । पढ़ते समय वे बिना आसन के फर्श पर बैठते और उनका मुँह दीवार की ओर रहता, कहीं यवन की द्रष्टि संस्कृत पंडित को मलिन न कर दे । जब सर जोन्स अपना पाठ पूरा कर लेते तो वह स्थान पानी से धोकर शुद्ध किया जाता फिर आचार्य महोदय विदा होते ।
उनमे अदभुत ज्ञान पिपासा थी, इतना कष्ट सहन कर बड़ी लगन से उन्होंने संस्कृत सीखी । इस ज्ञानतपस्या के पीछे उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं था, वे भारतीय संस्कृति के प्रति अनन्य समर्पित थे । कुछ ही समय में उन्होंने संस्कृत का ज्ञान प्राप्त कर लिया फिर कालीदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम का और हितोपदेश का अनुवाद किया , इन ग्रन्थों के साहित्य और लालित्य से जब अंग्रेजों का परिचय हुआ तो भारत के संबंध में उन लोगों की भ्रान्तियाँ टूट गईं जो केवल पराधीन होने के कारण भारतीय समाज और संस्कृति को हीन द्रष्टि से देखते थे । उन्होंने संस्कृत में कई मौलिक कविताएँ भी लिखी । भारतीय ज्ञान विज्ञान को प्रकाश में लाने के उनके योगदान को यह देश कभी भुला न सकेगा ।
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