पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- "जिस प्रकार सूखे बाँस आपस की रगड़ से ही जलकर भस्म हो जाते हैं , उसी प्रकार अहंकारी व्यक्ति आपस में टकराते हैं और कलह की अग्नि में जल मरते हैं l " किसी न किसी उदेश्य के लिए ये अहंकारी संगठित हो जाते हैं , अपना एक गुट बना लेते हैं l इनका अहंकार चरम पर होता है , इनका उदेश्य किसी का हित करना नहीं होता , ये अपने स्वार्थ के लिए और विभिन्न तरीकों से अपने अहंकार को पोषित करने के लिए संगठित होते हैं l जब तक इनके उदेश्य पूरे होते हैं , ये संगठित रहते हैं लेकिन जब भी कभी किसी के अहंकार को चोट पहुँचती है , तब इनमें फूट पड़ जाती है , फिर आपसी कलह से ही इनका अंत होता है l रावण , कंस , दुर्योधन का अहंकार मिटाने के लिए भगवान को धरती पर आना पड़ा l लेकिन कलियुग में अहंकारी स्वयं को ही भगवान समझते हैं इसलिए अब ईश्वर विधान रचते हैं , जिससे ये नकली भगवान आपस में लड़कर , अपने ही कुकर्मों के बोझ तले दबकर मृतक समान हो जाते हैं l कलियुग में इन अहंकारियों का अंत करने भगवान इसलिए भी नहीं आते क्योंकि ईश्वर के हाथों जिनका अंत होता है , उनकी मुक्ति हो जाती है l इस युग के अहंकारी इतने पापकर्म करते हैं कि ईश्वर उन्हें मुक्ति नहीं देते , उन्हें तो हजारों वर्षों तक भूत , प्रेत , पिशाच की योनि में भटकना पड़ता है l ऐसे लोग जीवित रहते हुए अपने अहंकार के नशे में लोगों को सताते हैं फिर मरकर भूत -प्रेत बनकर सताते हैं l धरती माता के लिए ऐसे लोग बड़े कष्टकारी हैं l