एक दिन महाराज सुदास के पुत्र कल्याणपाद आखेट कर के राजमहल लौट रहे थे l मार्ग में एक तंग पुलिया पड़ी , जिस पर से एक समय में एक ही व्यक्ति निकल सकता था l उस मार्ग पर दूसरी ओर से ऋषि वसिष्ठ के पुत्र शक्ति मुनि आ रहे थे l दोनों ही हठधर्मिता के कारण पुलिया के दोनों सिरों पर खड़े रहे और दूसरे को निकलने का स्थान नहीं दिया l बहुत देर तक ऐसा होने पर शक्ति मुनि को क्रोध आ गया और उन्होंने कल्याणपाद को राक्षस बन जाने का शाप दे दिया l राक्षस बनते ही कल्याणपाद ने शक्ति मुनि का ही भक्षण कर लिया l उस समय शक्ति मुनि की पत्नी गर्भवती थी , कुछ समय बाद उसने पराशर मुनि को जन्म दिया l महर्षि वसिष्ठ ने कल्याणपाद को पुत्रहंता होने पर भी राक्षस शरीर के शाप से मुक्त कर दिया l जब पराशर मुनि बड़े हुए और उन्हें अपने पिता की मृत्यु के कारण का पता चला तो वे क्रोधित हो उठे और पुन: कल्याणपाद से प्रतिशोध लेने को तैयार हो गए l महर्षि वसिष्ठ ने जब अपने पौत्र को प्रतिशोध की आग में जलते देखा तो उन्हें बुलाकर समझाया ---- " पुत्र ! क्रोध करना शूरवीरता का नहीं , मानवीय दुर्बलता का प्रतीक है l ऐसा नहीं है कि पुत्र की मृत्यु का दरद मुझे न हुआ हो और मैं कल्याणपाद को सजा देने की सामर्थ्य न रखता हूँ , परन्तु मैंने यह अनुभव किया कि किसी और का जीवन हरण करने से मेरे पुत्र को लौटा पाना संभव नहीं है l क्षमा करने के लिए ज्यादा बड़े ह्रदय की आवश्यकता है l " महर्षि वसिष्ठ की बात सुनकर पराशर मुनि का ह्रदय बदल गया l