निखिल विश्व की समस्त गतिविधि 'दान 'के सतोगुणी नियम के आधार पर चल रहीं हैं | परमेश्वर ने कुछ ऐसा क्रम रखा है कि 'पहले दो तब मिलेगा 'जो कोई भी तत्व अपने दान की प्रक्रिया बंद कर देता है ,वही नष्ट हो जाता है ,जीवन युद्ध में धराशायी हो जाता है |
यदि कुएँ जल दान देना बंद कर दें ,खेत अन्न देना रोक दें ,पेड़ फल ,पत्तियां ,छाल देना बंद कर दें ,हवा ,जल ,धूप ,गाय ,भैंस अपनी सेवाएं रोक दें तो समस्त स्रष्टि का संचालन बंद हो जायेगा | परमेश्वर की रचना में दान तत्व प्रमुख है ,परमेश्वर तो हर पल ,हर घड़ी हमें कुछ न कुछ प्रदान करता रहता है |
दान का अभिप्राय है -संकीर्णता से छुटकारा ,आत्म संयम का अभ्यास और दूसरे की सहायता की भावना | दान करते समय हमारे मन में यश प्राप्ति की इच्छा ,फल की आशा या अहंकार की भावना नहीं होनी चाहिये | दान तो स्वयं प्रसन्नता ,सुख एवं संतोष का दाता है | देते समय जो संतोष की उच्च सात्विक द्रष्टि अंत:करण में उठती है ,वह इतनी महान है कि कोई भी भौतिक सुख उसकी तुलना नहीं कर सकता |
सात्विक दान
बुद्ध पाटलिपुत्र आये | बिंबिसार राजकोष से कीमती हीरे ,मोती आदि लेकर आये | बुद्ध ने एक हाथ से स्वीकार कर शिष्यों को दे दिये | मंत्रियों ,श्रेष्ठियों ,व्यापारियों के उपहार भी एक हाथ से लेकर दे दिये गये ,ताकि संघारामो के निर्माण .प्रव्रज्या में उनका उपयोग हो | इतने में एक वयोवृद्ध महिला किसी तरह चलती हुई आई और बोली -"भगवन !आपके आने का समाचार मिला | मेरे पास कुछ था नहीं | यह मेरा ही खाया आधा अनार था ,जो आपकी सेवा के लिये लाई हूं | स्वीकार कीजिये | "बुद्ध ने दोनों हाथों से भेंट स्वीकार की और उसे माथे से लगाया | बिंबसार ने कहा -हे भगवन !आपने हमारी भेंट तो एक हाथ से ली और इस वृद्धा की भेंट दोनों हाथों से ली ,माथे से लगाई ,इसका क्या रहस्य है ?
तब तथागत बोले -"तुम्हारा दान सात्विक नहीं था | इस वृद्धा ने भावपूर्वक अपना सर्वस्व मुझे दान में दिया है | मैं तो भावना का भूखा हूं| भले ही यह निर्धन है पर इसे मुझसे प्रेम ,करुणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहिये | वही भाव मैंने प्रकट किये हैं | "बिंबिसार यह सुनकर धन्य हो गये |
यदि कुएँ जल दान देना बंद कर दें ,खेत अन्न देना रोक दें ,पेड़ फल ,पत्तियां ,छाल देना बंद कर दें ,हवा ,जल ,धूप ,गाय ,भैंस अपनी सेवाएं रोक दें तो समस्त स्रष्टि का संचालन बंद हो जायेगा | परमेश्वर की रचना में दान तत्व प्रमुख है ,परमेश्वर तो हर पल ,हर घड़ी हमें कुछ न कुछ प्रदान करता रहता है |
दान का अभिप्राय है -संकीर्णता से छुटकारा ,आत्म संयम का अभ्यास और दूसरे की सहायता की भावना | दान करते समय हमारे मन में यश प्राप्ति की इच्छा ,फल की आशा या अहंकार की भावना नहीं होनी चाहिये | दान तो स्वयं प्रसन्नता ,सुख एवं संतोष का दाता है | देते समय जो संतोष की उच्च सात्विक द्रष्टि अंत:करण में उठती है ,वह इतनी महान है कि कोई भी भौतिक सुख उसकी तुलना नहीं कर सकता |
सात्विक दान
बुद्ध पाटलिपुत्र आये | बिंबिसार राजकोष से कीमती हीरे ,मोती आदि लेकर आये | बुद्ध ने एक हाथ से स्वीकार कर शिष्यों को दे दिये | मंत्रियों ,श्रेष्ठियों ,व्यापारियों के उपहार भी एक हाथ से लेकर दे दिये गये ,ताकि संघारामो के निर्माण .प्रव्रज्या में उनका उपयोग हो | इतने में एक वयोवृद्ध महिला किसी तरह चलती हुई आई और बोली -"भगवन !आपके आने का समाचार मिला | मेरे पास कुछ था नहीं | यह मेरा ही खाया आधा अनार था ,जो आपकी सेवा के लिये लाई हूं | स्वीकार कीजिये | "बुद्ध ने दोनों हाथों से भेंट स्वीकार की और उसे माथे से लगाया | बिंबसार ने कहा -हे भगवन !आपने हमारी भेंट तो एक हाथ से ली और इस वृद्धा की भेंट दोनों हाथों से ली ,माथे से लगाई ,इसका क्या रहस्य है ?
तब तथागत बोले -"तुम्हारा दान सात्विक नहीं था | इस वृद्धा ने भावपूर्वक अपना सर्वस्व मुझे दान में दिया है | मैं तो भावना का भूखा हूं| भले ही यह निर्धन है पर इसे मुझसे प्रेम ,करुणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहिये | वही भाव मैंने प्रकट किये हैं | "बिंबिसार यह सुनकर धन्य हो गये |
very good story.
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