'अध्यात्म अंत:करण में परिवर्तन है ,आंतरिक जीवन का रूपांतरण है | जीवन का सत्य बाह्य आवरण में नहीं है | मन की पवित्रता का उद्देश्य यदि पूरा न हुआ तो बाह्य कर्मकांडो का कुछ विशेष लाभ नहीं मिल पाता | '
कथा पुरानी है पर इसका सत्य सदा ही नया रहता है |
एक शहर में एक दिन ,एक ही समय दो मौतें हो गईं | इनमे एक सन्यासी थे ,एक नर्तकी | इन दोनों का निवास भी आमने -सामने था | जैसे ही उन दोनों की मृत्यु हुई ,उन्हें ले जाने के लिये ऊपर से दूत आये | वे दूत नर्तकी को स्वर्ग की ओर तथा सन्यासी को नरक की ओर ले चले | सन्यासी ज्यादा देर तक अपना धीरज बनाये न रख सके और बोले -"अरे भाई !तुमसे जरुर कुछ भूल हुई है | नर्तकी को स्वर्ग और मुझे नरक की ओर ,यह अन्याय और अंधेर के सिवा और क्या है | अपनी भूल सुधारो ,गलत राह मत चलो | "फिर धरती की ओर दिखाते हुए कहा -"देखो !धरती वासी कितने समझदार हैं ,सन्यासी की लाश को फूलों से सजा कर ले जा रहें हैं और नर्तकी की लाश को कोई पूछने वाला नहीं है | "
दूत ठहाका लगाकर हँसने लगे और बोले --"ये बेचारे तो केवल वही जानते हैं ,जो बाहर था | ये व्यवहार तो देख पाते हैं ,किंतु अंत:करण का उन्हें कुछ भी अनुभव नहीं | इन लोगों ने वही जाना जो तुम दिखाते रहे परंतु जो तुम सोचते रहे ,मन की दीवारों के भीतर करते रहे ,उसे ये सब जान नहीं पाये | सच तो यही रहा कि शरी र से तुम सन्यासी थे ,पर तुम्हारा मन तो सदा नर्तकी में अनुरक्त रहा ,सदा ही तुम्हारे मन में वासना उठती रही कि नर्तकी के घर में कितना सुंदर संगीत और नृत्य चल रहा है और मेरा जीवन कितना नीरस है | "
"जबकि नर्तकी निरंतर यही सोचती रही कि इन सन्यासी महाराज का जीवन कितना पवित्र व आनंदपूर्ण है | रात को तुम जब भजन गाते थे तब वह बेचारी अपने पापों की पीड़ा से विगलित होती ,रोती थी | तुम अपने तथाकथित ज्ञान के कारण कठोर और अहंकारी होते गये और वह अपने अज्ञान बोध के कारण सरल होती गई | मृत्यु की घड़ी में तुम्हारे चित में अहंकार था ,वासना थी ,जबकि उसके चित में न तो अहंकार था और न वासना थी | उसका चित तो परमात्मा के प्रकाश ,प्रेम एवं प्रार्थना से परिपूर्ण था | इसलिये यही स्वर्ग की अधिकारी है |
अध्यात्म व्यवहार का अभिनय नहीं ,चित का रूपांतरण है ,अंत:करण की क्रांति है |
कथा पुरानी है पर इसका सत्य सदा ही नया रहता है |
एक शहर में एक दिन ,एक ही समय दो मौतें हो गईं | इनमे एक सन्यासी थे ,एक नर्तकी | इन दोनों का निवास भी आमने -सामने था | जैसे ही उन दोनों की मृत्यु हुई ,उन्हें ले जाने के लिये ऊपर से दूत आये | वे दूत नर्तकी को स्वर्ग की ओर तथा सन्यासी को नरक की ओर ले चले | सन्यासी ज्यादा देर तक अपना धीरज बनाये न रख सके और बोले -"अरे भाई !तुमसे जरुर कुछ भूल हुई है | नर्तकी को स्वर्ग और मुझे नरक की ओर ,यह अन्याय और अंधेर के सिवा और क्या है | अपनी भूल सुधारो ,गलत राह मत चलो | "फिर धरती की ओर दिखाते हुए कहा -"देखो !धरती वासी कितने समझदार हैं ,सन्यासी की लाश को फूलों से सजा कर ले जा रहें हैं और नर्तकी की लाश को कोई पूछने वाला नहीं है | "
दूत ठहाका लगाकर हँसने लगे और बोले --"ये बेचारे तो केवल वही जानते हैं ,जो बाहर था | ये व्यवहार तो देख पाते हैं ,किंतु अंत:करण का उन्हें कुछ भी अनुभव नहीं | इन लोगों ने वही जाना जो तुम दिखाते रहे परंतु जो तुम सोचते रहे ,मन की दीवारों के भीतर करते रहे ,उसे ये सब जान नहीं पाये | सच तो यही रहा कि शरी र से तुम सन्यासी थे ,पर तुम्हारा मन तो सदा नर्तकी में अनुरक्त रहा ,सदा ही तुम्हारे मन में वासना उठती रही कि नर्तकी के घर में कितना सुंदर संगीत और नृत्य चल रहा है और मेरा जीवन कितना नीरस है | "
"जबकि नर्तकी निरंतर यही सोचती रही कि इन सन्यासी महाराज का जीवन कितना पवित्र व आनंदपूर्ण है | रात को तुम जब भजन गाते थे तब वह बेचारी अपने पापों की पीड़ा से विगलित होती ,रोती थी | तुम अपने तथाकथित ज्ञान के कारण कठोर और अहंकारी होते गये और वह अपने अज्ञान बोध के कारण सरल होती गई | मृत्यु की घड़ी में तुम्हारे चित में अहंकार था ,वासना थी ,जबकि उसके चित में न तो अहंकार था और न वासना थी | उसका चित तो परमात्मा के प्रकाश ,प्रेम एवं प्रार्थना से परिपूर्ण था | इसलिये यही स्वर्ग की अधिकारी है |
अध्यात्म व्यवहार का अभिनय नहीं ,चित का रूपांतरण है ,अंत:करण की क्रांति है |
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