'जीवन का दुःख ही एकमात्र सच है ,सुख तो छाया मात्र है और इसलिये यह कभी पकड़ में नहीं आता | इसको पाने -पकड़ने के समस्त प्रयास अनगिनत समस्याओं को जन्म देते हैं | '
दुःख हमें जीवन की वास्तविकता से परिचय कराता है | दुःख को देवों का धन माना जाता है ,जिसके प्रहार से आंतरिक कलुषता धुलती है |
उपनिषद के ऋषिकहते हैं कि -सुख के पीछे मत भागो और दुःख को जीवन की चरम सच्चाई मानकर इसे निर्विकार भाव से झेलो |
दुःख के ताप को यदि धैर्य और साहस पूर्वक झेल लिया जाये तो यह तपस्या बन जाता है ,यह कर्म बंधन को काटने का एक श्रेष्ठ साधन बन जाता है |
ठीक इसी तरह जीवन में आये सुख को बिना इतराए -इठलाये भोग लिया जाये तो यह महायोग बन जाता है ,ऐसा योग जो चेतना को विकसित करता है |
ऋषि कहते हैं कि दुःख हो या सुख सभी को निर्विकार भाव से झेलना ही समझदारी है | जब जीवन में जो आये उसे स्वीकार करना चाहिये |
सुख उतना जितना मिल जाये और दुःख को भगवान का प्रसाद मानकर उसे स्वीकार कर लेना ही विवेक है | इसलिये ऐसी द्रष्टि पैदा करना आवश्यक है जो सुख दुःख को समान ढंग से झेल सके |
महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ ,श्री कृष्ण द्वारका लौटने लगे तो कुंती ने उनसे प्रार्थना की -"हे प्रभु !आप आशीर्वाद दें कि हम पर विपतियाँ सदैव आती रहें | श्री कृष्ण ने पूछा -"आप लोगों ने जीवन भर विपतियो का सामना किया फिर ऐसी विलक्षण मांग क्यों ?कुंती बोलीं -"भगवन !विपतियाँ आयेंगी तो उनसे रक्षा के लिये आप भी आयेंगे ,जिस भी कारण से आपका दर्शन हो ,हमारे लिये तो सौभाग्यशाली ही होगा | "
विपतियाँ प्रत्येक के जीवन में आती हैं पर जिनकी भगवान पर अटल श्रद्धा होती है ,वे इन क्षणों को जीवन का सौभाग्य मानकर स्वीकार करते हैं |
दुःख हमें जीवन की वास्तविकता से परिचय कराता है | दुःख को देवों का धन माना जाता है ,जिसके प्रहार से आंतरिक कलुषता धुलती है |
उपनिषद के ऋषिकहते हैं कि -सुख के पीछे मत भागो और दुःख को जीवन की चरम सच्चाई मानकर इसे निर्विकार भाव से झेलो |
दुःख के ताप को यदि धैर्य और साहस पूर्वक झेल लिया जाये तो यह तपस्या बन जाता है ,यह कर्म बंधन को काटने का एक श्रेष्ठ साधन बन जाता है |
ठीक इसी तरह जीवन में आये सुख को बिना इतराए -इठलाये भोग लिया जाये तो यह महायोग बन जाता है ,ऐसा योग जो चेतना को विकसित करता है |
ऋषि कहते हैं कि दुःख हो या सुख सभी को निर्विकार भाव से झेलना ही समझदारी है | जब जीवन में जो आये उसे स्वीकार करना चाहिये |
सुख उतना जितना मिल जाये और दुःख को भगवान का प्रसाद मानकर उसे स्वीकार कर लेना ही विवेक है | इसलिये ऐसी द्रष्टि पैदा करना आवश्यक है जो सुख दुःख को समान ढंग से झेल सके |
विपतियाँ प्रत्येक के जीवन में आती हैं पर जिनकी भगवान पर अटल श्रद्धा होती है ,वे इन क्षणों को जीवन का सौभाग्य मानकर स्वीकार करते हैं |
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