तेरह वर्ष की आयु में, जेब में मात्र एक रुपया लेकर जो रास्ते में होने वाले भोजन व्यय के लिए ही पर्याप्त नहीं था, निर्धन परिवार का छोटा बालक , बेलगाम जिले के छोटे से गाँव से अध्ययन के लिए पूना पहुँचा ---- नारायण राव परुलेकर को पूना में कई लम्बे कष्टपूर्ण दिन स्कूलों और हेडमास्टरों के घर चक्कर लगाते बीते । रात्रि को वे किसी मंदिर का आश्रय लेते । आखिर एक दिन इस रत्न को पारखी मिल गया ।
प्रसिद्ध शिक्षाविद श्रीबालूकान्ता जी ने उन्हें अपने घर में आश्रय दिया, फिर उन्होंने अपने मित्रों के सहयोग से अनाथाश्रम खोला तो नारायण राव को वहां रख दिया । मधुकरी करते हुए विद्दार्थियों को विद्दोपार्जन करना पड़ता था, जिसे उन्हें भी निभाना था । इसी बालक ने ' विद्दार्थी ' नामक मासिक हस्तलिखित पत्रिका प्रकाशित की । यह भावी पत्रकारिता का शुभारम्भ था । पूना कॉलेज में पढ़ते हुए जब उन्हें अनन्त शिवाजी देसाई फर्म व उद्दोगपति प्रताप सेठ का आर्थिक सहयोग मिला तो उनकी ज्ञान-पिपासा उन्हें अमेरिका ले गई, वहां उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय से दर्शन शास्त्र, समाज शास्त्र व पत्रकारिता में एम.ए. किया ।
अमेरिका में वे समाचार पत्रों में लेख लिखकर सम्मानित हो चुके थे, फ्रांस जाकर उन्होंने फ्रेंच सीखी, जब वे भारत लौटे तब तक ' न्यूयार्क वर्ल्ड ' , ले मों द , 'फेशिस्ते जायतुंग ' आदि अमेरिकी , फ़्रांसिसी पत्रों के संवाददाता और प्रतिनिधि रह चुके थे । योरोप जाकर भी वे भारतीय परंपरा को नहीं भूले । पूना आकर दैनिक समाचार पत्र ' सकाल ' का सफल संपादन किया । अपनी सफलता का रहस्य बताते हुए कहते थे ---- " यह सब भगवान का काम है मेरा अपना नहीं । जीवन की रंगभूमि पर जो भूमिका निभाने के लिए भगवान ने मुझे भेजा है , मैं अंतिम श्वास तक उसके साथ न्याय करने का प्रयास करूँगा । " संपादन , प्रकाशन के साथ ही गरीब विद्दार्थियों व विद्वानो को सहायता , असहायों को सहारा , कला -सुमनों को प्रोत्साहन , पुरस्कार , मेधावी छात्रों को उच्च शिक्षार्थ विदेश भेजने के परोपकारी कार्य वे करते रहे और वे पत्रकार परुलेकर के साथ ही ' नाना साहेब परुलेकर ' भी बन गये । उन्होंने संपादन , वितरण , व्यवस्था व मुद्रण आदि कामों में विद्दार्थियों को नियोजित किया और कई ऐसी योजनाएं भी चलाईं जिससे साधनविहीन , संकल्पशील विद्दार्थी ज्ञानार्जन कर सकें । वे प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के अध्यक्ष भी बनाये गये और दो बार भारत सरकार ने उन्हें ' पद्मभूषण ' से अलंकृत किया ।
' सकाल ' कार्यालय युवकों की कार्यशाला बन गया था , निर्धन छात्र जो कभी काम करते वक्त हीनता अनुभव करते थे , उन्हें बुलाकर समझाते थे --- " मैंने अमेरिका में पढ़ते समय छोटे मजदूरी के कार्य करके अपना खर्च चलाया , एक सज्जन मेरे ही लिखे लेख की प्रशंसा कर रहे थे और मैं उसी रेस्तरां में झूठी रक़ाबियाँ धोता हुआ उसे सुन रहा था । तुम्हे इसमें शर्माना नहीं चाहिए । काम करने वालों को नहीं निकम्मों को शर्माना चाहिए । "
प्रसिद्ध शिक्षाविद श्रीबालूकान्ता जी ने उन्हें अपने घर में आश्रय दिया, फिर उन्होंने अपने मित्रों के सहयोग से अनाथाश्रम खोला तो नारायण राव को वहां रख दिया । मधुकरी करते हुए विद्दार्थियों को विद्दोपार्जन करना पड़ता था, जिसे उन्हें भी निभाना था । इसी बालक ने ' विद्दार्थी ' नामक मासिक हस्तलिखित पत्रिका प्रकाशित की । यह भावी पत्रकारिता का शुभारम्भ था । पूना कॉलेज में पढ़ते हुए जब उन्हें अनन्त शिवाजी देसाई फर्म व उद्दोगपति प्रताप सेठ का आर्थिक सहयोग मिला तो उनकी ज्ञान-पिपासा उन्हें अमेरिका ले गई, वहां उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय से दर्शन शास्त्र, समाज शास्त्र व पत्रकारिता में एम.ए. किया ।
अमेरिका में वे समाचार पत्रों में लेख लिखकर सम्मानित हो चुके थे, फ्रांस जाकर उन्होंने फ्रेंच सीखी, जब वे भारत लौटे तब तक ' न्यूयार्क वर्ल्ड ' , ले मों द , 'फेशिस्ते जायतुंग ' आदि अमेरिकी , फ़्रांसिसी पत्रों के संवाददाता और प्रतिनिधि रह चुके थे । योरोप जाकर भी वे भारतीय परंपरा को नहीं भूले । पूना आकर दैनिक समाचार पत्र ' सकाल ' का सफल संपादन किया । अपनी सफलता का रहस्य बताते हुए कहते थे ---- " यह सब भगवान का काम है मेरा अपना नहीं । जीवन की रंगभूमि पर जो भूमिका निभाने के लिए भगवान ने मुझे भेजा है , मैं अंतिम श्वास तक उसके साथ न्याय करने का प्रयास करूँगा । " संपादन , प्रकाशन के साथ ही गरीब विद्दार्थियों व विद्वानो को सहायता , असहायों को सहारा , कला -सुमनों को प्रोत्साहन , पुरस्कार , मेधावी छात्रों को उच्च शिक्षार्थ विदेश भेजने के परोपकारी कार्य वे करते रहे और वे पत्रकार परुलेकर के साथ ही ' नाना साहेब परुलेकर ' भी बन गये । उन्होंने संपादन , वितरण , व्यवस्था व मुद्रण आदि कामों में विद्दार्थियों को नियोजित किया और कई ऐसी योजनाएं भी चलाईं जिससे साधनविहीन , संकल्पशील विद्दार्थी ज्ञानार्जन कर सकें । वे प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के अध्यक्ष भी बनाये गये और दो बार भारत सरकार ने उन्हें ' पद्मभूषण ' से अलंकृत किया ।
' सकाल ' कार्यालय युवकों की कार्यशाला बन गया था , निर्धन छात्र जो कभी काम करते वक्त हीनता अनुभव करते थे , उन्हें बुलाकर समझाते थे --- " मैंने अमेरिका में पढ़ते समय छोटे मजदूरी के कार्य करके अपना खर्च चलाया , एक सज्जन मेरे ही लिखे लेख की प्रशंसा कर रहे थे और मैं उसी रेस्तरां में झूठी रक़ाबियाँ धोता हुआ उसे सुन रहा था । तुम्हे इसमें शर्माना नहीं चाहिए । काम करने वालों को नहीं निकम्मों को शर्माना चाहिए । "
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