' आत्मिक शुद्धि , आत्मिक शान्ति तथा लोकहित के लिए अपने आपको ईश्वर को समर्पित करना भारतीय संस्कृति की एक बड़ी विशेषता रही है । '
जब मनुष्य सब ओर से सहायता की आशा त्याग कर एकमात्र ईश्वर को ही आत्मसमर्पण कर देता है तब वह मन में अनोखी शान्ति का अनुभव करता है और गुप्त दैवी शक्ति प्राप्त करता है ।
' जो संसार के अन्य आश्रयों को छोड़कर नित्य निरंतर निष्काम भाव से भगवान को सब कुछ सौंप देता है , भगवान उसकी रक्षा ही नहीं करते , वरन उसका लौकिक एवं पारलौकिक भर भी सम्हालते हैं । ' शर्त यही है कि यह आत्म समर्पण विशुद्ध प्रेम भाव से होना चाहिए ।
संसार में बड़े - बड़े महात्मा , विद्वान और विचारक हुए हैं । जिन लेखकों ने केवल यश लिप्सा और विद्वता के दंभ की पूर्ति के लिए साहित्य साधना की थी , वे अंधकार में क्षण भर के लिए प्रकाश करने वाली चिनगारी की तरह चमक कर बुझ गये ।
किन्तु जिन विद्वानों ने अपने को भगवान को समर्पित कर , ईश्वरीय सत्ता से गुप्त दैवी बल ग्रहण कर साहित्य निर्माण किया , उनमे गुप्त रूप से ऐसी महान शक्ति का आविर्भाव हुआ कि वह ग्रन्थ युग - युग होने पर आज भी सर्वत्र प्रेरक और पूजनीय है ।
महाकवि मिल्टन ने अपनी तमाम काव्य शक्तियों को ईश्वर को अर्पित कर दिया , इससे उनकी कविता में वह दैवी शक्ति एवं बल आया कि वह शाश्वत भावना स्पष्ट कर सकी और बड़ी लोकप्रिय हुईं । इसी प्रकार अपने अंतिम दिनों में महाकवि वर्ड्सवर्थ भी अध्यात्म में डूब गये और उनकी कविता उच्चतम आत्मज्ञान की परिचायिका बनी ।
भारत में गोस्वामी तुलसीदास , सूरदास , मीराबाई , कबीर , गुरु नानक आदि अनेक संत महाकवियों ने अपनी शक्तियों को ईश्वर के अर्पण कर दिया । इस आत्मसमर्पण से उनकी स्वार्थ भावना , यश लिप्सा और अहं भाव दूर हो गये । इस ईश्वरीय स्पर्श से वे भक्ति , प्रेम , विनय सेवा , करुणा आदि के ऐसे ह्रदय स्पर्शी भजन , दोहे , गीत लिख सके , जो युग - युग बीत जाने पर आज भी हमें नए उत्साह , प्रेम और प्रेरणा से भर देते हैं ।
जब मनुष्य सब ओर से सहायता की आशा त्याग कर एकमात्र ईश्वर को ही आत्मसमर्पण कर देता है तब वह मन में अनोखी शान्ति का अनुभव करता है और गुप्त दैवी शक्ति प्राप्त करता है ।
' जो संसार के अन्य आश्रयों को छोड़कर नित्य निरंतर निष्काम भाव से भगवान को सब कुछ सौंप देता है , भगवान उसकी रक्षा ही नहीं करते , वरन उसका लौकिक एवं पारलौकिक भर भी सम्हालते हैं । ' शर्त यही है कि यह आत्म समर्पण विशुद्ध प्रेम भाव से होना चाहिए ।
संसार में बड़े - बड़े महात्मा , विद्वान और विचारक हुए हैं । जिन लेखकों ने केवल यश लिप्सा और विद्वता के दंभ की पूर्ति के लिए साहित्य साधना की थी , वे अंधकार में क्षण भर के लिए प्रकाश करने वाली चिनगारी की तरह चमक कर बुझ गये ।
किन्तु जिन विद्वानों ने अपने को भगवान को समर्पित कर , ईश्वरीय सत्ता से गुप्त दैवी बल ग्रहण कर साहित्य निर्माण किया , उनमे गुप्त रूप से ऐसी महान शक्ति का आविर्भाव हुआ कि वह ग्रन्थ युग - युग होने पर आज भी सर्वत्र प्रेरक और पूजनीय है ।
महाकवि मिल्टन ने अपनी तमाम काव्य शक्तियों को ईश्वर को अर्पित कर दिया , इससे उनकी कविता में वह दैवी शक्ति एवं बल आया कि वह शाश्वत भावना स्पष्ट कर सकी और बड़ी लोकप्रिय हुईं । इसी प्रकार अपने अंतिम दिनों में महाकवि वर्ड्सवर्थ भी अध्यात्म में डूब गये और उनकी कविता उच्चतम आत्मज्ञान की परिचायिका बनी ।
भारत में गोस्वामी तुलसीदास , सूरदास , मीराबाई , कबीर , गुरु नानक आदि अनेक संत महाकवियों ने अपनी शक्तियों को ईश्वर के अर्पण कर दिया । इस आत्मसमर्पण से उनकी स्वार्थ भावना , यश लिप्सा और अहं भाव दूर हो गये । इस ईश्वरीय स्पर्श से वे भक्ति , प्रेम , विनय सेवा , करुणा आदि के ऐसे ह्रदय स्पर्शी भजन , दोहे , गीत लिख सके , जो युग - युग बीत जाने पर आज भी हमें नए उत्साह , प्रेम और प्रेरणा से भर देते हैं ।
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