लोकमान्य तिलक सच्चे धर्म का पालन करने वाले थे l यद्दपि आचार - व्यवहार में तिलक महाराज कट्टर धार्मिक माने जाते थे , पर वे अन्धविश्वासी नहीं थे l वे जानबूझकर किसी धर्म संबंधी नियम का उल्लंघन नहीं करते थे , पर अपने कर्तव्य पालन में दिखावटी परंपरा की बातों को बाधक भी नहीं होने देते थे l जब अपने मुक़दमे और होमरूल आन्दोलन के लिए उन्हें विदेश यात्रा की आवश्यकता पड़ी तो यह प्रश्न उठा कि बहुसंख्यक हिन्दू विदेश यात्रा को शास्त्र अनुसार वर्जित मानते थे , इसलिए इंग्लैंड कैसे जाएँ ? लोकमान्य ने इस सम्बन्ध में काशी के पंडितों से व्यवस्था चाही l पर उन कलियुगी पंडितों ने कहा कि हम विदेश यात्रा की शास्त्रीय व्यवस्था दे सकते हैं , इसके लिए पांच हजार रूपये भेंट देना होगा l
तिलक महाराज जो स्वयं हिन्दू शास्त्रों के सबसे बड़े ज्ञाता थे , इस ' धर्म की दुकानदारी ' को देखकर बड़े नाराज हुए और उन्होंने पंडितों की बात को ठुकरा दिया l वे स्वेच्छापूर्वक विदेश चले गए और वहां से वापस आने पर स्वयं ने ही शास्त्र विधि के अनुसार उसका प्रायश्चित कर लिया l
लोकमान्य तिलक का चरित्र हमको बतलाता है कि किस प्रकार मनुष्य अपने धर्म पर पूर्णतया दृढ़ रहकर भी हानिकारक रूढ़ियों के बंधनों को तोड़ सकता है l
तिलक महाराज जो स्वयं हिन्दू शास्त्रों के सबसे बड़े ज्ञाता थे , इस ' धर्म की दुकानदारी ' को देखकर बड़े नाराज हुए और उन्होंने पंडितों की बात को ठुकरा दिया l वे स्वेच्छापूर्वक विदेश चले गए और वहां से वापस आने पर स्वयं ने ही शास्त्र विधि के अनुसार उसका प्रायश्चित कर लिया l
लोकमान्य तिलक का चरित्र हमको बतलाता है कि किस प्रकार मनुष्य अपने धर्म पर पूर्णतया दृढ़ रहकर भी हानिकारक रूढ़ियों के बंधनों को तोड़ सकता है l
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