श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान अर्जुन को कहते हैं कि भोगविलास में डूबे एक सामान्यजन की जीवनदृष्टि उलटी होती है अर्थात जो मानव को अपनी गरिमा के अनुरूप करना चाहिए , वह उससे उलटा करता है , एक नर - पशु जैसी जिंदगी जीता है l लेकिन स्थितप्रज्ञ व्यक्ति धीर - गंभीर होता है l पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने उदाहरण देकर स्थितप्रज्ञ की विवेचना की है ---- ' रामकृष्ण परमहंस के पास गिरीश बाबू (जीसी ) की बहस चल रही थी कि स्थितप्रज्ञ कैसा होता है ? गिरीश बाबू को परमहंसजी ने चर्चा हेतु रोक लिया और स्वामी विवेकानंद से कहा कि वे पंचवटी में जाकर ध्यान करें l चारों ओर से मच्छरों ने स्वामी विवेकानंद को ढक लिया, मानों काली चादर हो लेकिन फिर भी उनका मन एकाग्र रहा , जरा भी विचलित नहीं हुआ l गिरीश बाबू को भी रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्र ( स्वामी विवेकानंद ) के पास बैठकर ध्यान करने को कहा l लेकिन मच्छरों के कारण वे विचलित रहे l अंदर से एक कंबल भी ले आए लेकिन कहीं न कहीं से मच्छर उसमे घुस गए , इस कारण वे अस्थिर हो गए ध्यान न कर सके l लेकिन मच्छरों के सतत आक्रमण के बाद भी स्वामी विवेकानंद सतत आठ घंटे ध्यानस्थ रहे l गिरीश बाबू मच्छर उड़ाते , आश्चर्य से स्वामी विवेकानंद को देखते रहे l विवेकानंद जी उठे --- अपना हाथ हिलाया , सारे मच्छर उड़ गए l गिरीश बाबू ने पूछा --- ' इतने मच्छरों के होते हुए आपने कैसे ध्यान कर लिया , , हम नहीं कर पाए l स्वामीजी बोले --- ' ध्यान तो आत्मा से किया जाता है l मच्छर तो शरीर को काट रहे थे , आत्मा को थोड़े ही कष्ट दे रहे थे l ' आचार्य श्री लिखते हैं --- स्थितप्रज्ञ समुद्र की तरह धीर - गंभीर व्यक्तित्व वाला होता है l जिस तरह समुद्र चारों ओर से आने वाले जल को अपने अंदर समा लेता है , फिर सीमा का उल्लंघन नहीं करता है , इसी तरह स्थितप्रज्ञ कितने ही कष्ट आएं , कितने ही विषयों का आक्रमण हो , कभी विचलित नहीं होता , शांत बना रहता है l
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