ऋषि दधीचि शिव जी के अनन्य भक्त थे l उनका पूरा जीवन तप , साधना , शिक्षण में बीता l जब वृत्रासुर का प्रकोप बढ़ा तो भगवान विष्णु ने कहा कि दधीचि जैसे तप साधक की अस्थियों से बना वज्र ही इंद्र की रक्षा कर सकेगा l हड्डियाँ कोई मांगने पर क्यों देगा , क्यों शरीर छोड़ेगा , इस सोच से परेशान इंद्र ने दधीचि की हत्या कर अस्थियाँ लेने की सोची l विष्णु जी ने उन्हें फटकार लगाईं और फिर स्वयं गए l प्रार्थना की कि संकट से त्राण हेतु आपकी अस्थियों की जरुरत है l तपोबल के धनि मुनि श्रेष्ठ ने योगबल से शरीर छोड़ा और अपनी अस्थियाँ दान कर दीं l उनका पुत्र बहुत छोटा था l उसकी माँ भी पति वियोग में चली गई l पुत्र पर बहुत कष्ट आए , पीपल के नीचे पीपल के फल खाकर शिव -शिव नाम जपकर वह जीवित रहा l नारद जी ने आकर उसका संस्कार किया और उसे पिप्पलाद नाम दिया l उसकी एक ही पुकार थी कि हमें इतना दुःख क्यों सहन करना पड़ा ? किसने दिया इतना दुःख ? नारद जी ने बताया कि शनि का तुम पर प्रकोप रहा है , उसी से यह स्थिति हुई है l पिप्पलाद बोले --- " यदि हमने शिव भक्ति की है तो हमारे कहने से ' शनि ' अपने गृह मंडल से नीचे गिरेगा l ऐसा ही हुआ , चारों ओर हाहाकार मच् गया l सब देवताओं ने विनती की कि स्रष्टि का संतुलन होना है , अत: उसे पुन: स्थापित करना होगा l पिप्पलाद ने कर दिया तब से पिप्प्लाद् कृत शनि स्रोत का पाठ होता है l और शनि के लिए पीपल की पूजा होती है l
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