पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के एक लेख का अंश ----- आचार्य जी लिखते हैं ---- "सुविचारों -सद्विचारों के खो जाने से अपराधों की प्रकृति बेतरह बढ़ रही है l अनपढ़ लोग इन्हें फूहड़ ढंग से करते हैं और चतुर लोग इन्हें चालाकी का रंग चढ़ाकर करते हैं l खाने -पीने की चीजों में मिलावट , कम तोलना , उठाईगिरी जैसे धंधे निचले लोग करते हैं l ऊँचे लोग इसमें लाभ कम और बदनामी अधिक देखते हैं , इसलिए वे ऐसे जाल बुनते हैं , जिसमे एक साथ ढेरों शिकार पकड़े जा सकें l एक -एक मछली पकड़ने के लिए धूप में बाँस की बंसी पकड़े रहना उन्हें मूर्खता पूर्ण लगता है l वे बड़े हैं , इसलिए बड़ा लाभ कमाने के लिए बड़ी दुरभिसंधि रचते हैं l आज के दौर में अपराध एक फैशन है , जिसे अपनाकर कोई लज्जित नहीं होता है बल्कि अपनी उद्दंडता की , चतुरता की प्रशंसा पाने की आशा रखता है l जो अपराध न कर सके वह बुद्धू , प्रतिगामी , डरपोक आदि न जाने क्या -क्या नाम धराता है l लोग उसे ' प्रैक्टिकल ' होने की सीख भी देते हैं l ------- आज बड़े आदमी बढ़ रहे हैं और महामानव अद्रश्य होते जा रहे हैं l अब ऐसे व्यक्तियों को ढूंढ पाना मुश्किल है जिन्हें सच्चे अर्थों में मनुष्य कहा जा सके l आकृति से तो मनुष्य सभी हैं , पर प्रकृति से मनुष्य कहीं नहीं दिखाई देते हैं l धूर्त , दुष्ट , विलासी और अपराधी प्रवृत्ति के लोग जिस समाज में भी होंगे , उसकी स्थिति कितनी दयनीय हो सकती हैं , इसे आज हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं l विज्ञानं ने हमें अगणित उपलब्धियां दिन लेकिन चेतना से स्तर पर हम आज भी पशु हैं l " आचार्य जी लिखते हैं---' सत्साहित्य के अध्ययन और विचारों में परिवर्तन , सकारात्मक सोच से ही सुधार संभव है l '
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