पं.श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं --- ' आसुरी प्रवृति वाले व्यक्तियों की मूल रूचि अपने अहंकार की पूर्ति में ही होती है , इसलिए उनको लगता है कि वे ही श्रेष्ठतम हैं l उनसे बढ़कर और उनसे ऊपर कोई और नहीं हो सकता l वे यदि शुभ कर्म भी करते हैं तो इसलिए ताकि उनके स्वयं के अहंकार की पूर्ति हो सके l उनके दान , उनके यज्ञ इसलिए होते हैं , ताकि उनको वाहवाही मिले , लोग उनका नाम लें और कहें कि वे श्रेष्ठ हैं l " श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --- ऐसी प्रवृति वाले मनुष्य अपने आप को ही श्रेष्ठ मानने वाले धन और मान के मद से युक्त होते हैं तथा दिखावे के लिए यज्ञ आदि कर्मों को करते हैं l उनका उद्देश्य इन कर्मों को कर के धर्म की रक्षा करना नहीं होता , बल्कि अपने अहंकार की पुष्टि करना होता है l " ------- इस सन्दर्भ में एक कथा है ----- एक राजा ने अपने अहंकार की पूर्ति के लिए एक बार बड़े -बड़े यज्ञ कराए l बहुत सा दान दिया l लोगों ने उसकी बहुत प्रशंसा की , इससे उसका अहंकार और बढ़ गया l वह सोचने लगा कि उसके समान धार्मिक और परोपकारी और कोई नहीं है l एक दिन एक संत उसके महल में पधारे l उसने संत को अपना सब खजाना , वैभव दिखाया और सोचा कि संत उसकी प्रशंसा करेंगे , पर संत बोले --- " राजन ! क्षण भंगुर में सुख कैसा ? जो शाश्वत नहीं है , उसमें सुख या धर्म ढूँढना मूर्खता है l इससे राजा के अहंकार को बहुत चोट लगी और उसने संत को सूली पर चढ़ाने का आदेश दे दिया l उसे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि संत सूली चढ़ते समय भी मस्ती से मुस्करा रहे थे , मानों कुछ हुआ ही न हो l कुछ वर्षों बाद राजा एक युद्ध में पराजित हुआ l विजेता राजा ने उसको उसी के महल के खम्भे से बांधकर फाँसी चढ़ाने का आदेश दिया तब उस राजा को उन संत की बातें याद आईं l आसुरी प्रवृति वाले ऐसे अहंकारी के द्वारा किए गए धर्मार्थ कार्य भी पाखंड के समान प्रतीत होते हैं l अहंकार का अंत होता ही है l
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