पुराणों में देवताओं और असुरों के बीच संघर्ष की अनेक कथाएं हैं l युगों से अच्छाई और बुराई में , देवता और असुरों में संघर्ष चला आ रहा है जिनमें अंत में विजय देवताओं की होती है , सत्य और धर्म ही विजयी होता है l उस युग में दैवीय गुणों से संपन्न लोग बहुत थे , वे संगठित भी थे और उनका आत्मिक बल बहुत अधिक था इसलिए वे असुरों से मुकाबला कर उन्हें पराजित कर देते थे l कलियुग की स्थिति बिलकुल भिन्न है l अब सत्य और धर्म पर चलने वाले , दैवीय गुणों से संपन्न लोगों की संख्या बहुत कम है , वे संगठित भी नहीं हैं l आसुरी प्रवृत्ति के लोग उन्हें चैन से जीने नहीं देते फिर अपने परिवार की खातिर उन्हें सत्ता से भी समझौता करना पड़ता है l इसलिए इस युग में पहले जैसा देवासुर संग्राम संभव ही नहीं है l आसुरी प्रवृत्ति का साम्राज्य सम्पूर्ण धरती पर है , मुट्ठी भर देवता उनका क्या बिगाड़ लेंगे ? लेकिन असुरता का अंत तो होना ही है , अन्यथा यह धरती घोर अंधकार में डूब जाएगी l आसुरी प्रवृत्ति का अंत कैसे हो ? इसका संकेत भगवान ने द्वापर युग के अंतिम वर्षों में ही दे दिया था l किसी कुल या किसी विशेष खानदान में जन्म लेने से कोई भी देवता या असुर नहीं है l ईश्वर ने बताया कि मनुष्य अपने कर्मों से देवता या दानव कहलायेगा l व्यक्ति का श्रेष्ठ चरित्र , उसके श्रेष्ठ कर्म उसके देवत्व का प्रमाण होंगे l अब दैवीय गुणों से संपन्न किसी को भी असुरता से संघर्ष की जरुरत नहीं है l अपने श्रेष्ठ कर्मों से मनुष्य के पास नर से नारायण बनने की संभावना है l यह मार्ग सबके लिए खुला है l जो लोग अपनी दुष्प्रवृत्तियों से उबरना ही नहीं चाहते , अति के भोग -विलास के कारण उनका चारित्रिक पतन हो गया है , वे अपने ही दुर्गुणों के कारण आपस में ही लड़कर नष्ट हो जाएंगे l भगवान श्रीकृष्ण ने अपने ही कुल के उदाहरण से संसार को समझाया कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के वंशज होने के बावजूद अति के सुख -सम्पन्नता के कारण पूरा यादव वंश भोग विलास में डूब गया था , उनका चारित्रिक पतन हो गया था इसलिए पूरा यादव वंश आपस में ही लड़ -भिड़कर नष्ट हो गया और द्वारका समुद्र में डूब गई l देवता या असुर बनना अब मनुष्य के हाथ में है , हमें निर्णय लेना है , चयन का अधिकार प्रत्येक को है l
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