'संवेदना जब समस्त मानव जाति के लिये बहने लगती है तो करुणा में परिवर्तित हो जाती है । तब अपने पराये का भेद-भाव मिट जाता है ।'
जैसे जंगल में किसी अनजानी पगडण्डी के किनारे एक गुलाब खिला है । जो भी आता है, सम्राट हो या भिखारी वही उसकी खुशबु से विभोर होता चला जाता है । कोई न आये तो भी व ह अपनी सुरभि को अनंत आकाश में फैलाता रहता है । सुरभि बिखेरना , मुस्कान लुटाना उसकी स्वभाविक अवस्था है । ऐसे ही करुणा उस व्यक्ति की स्वाभाविक अवस्था है ।
गुरुकुल दीक्षांत समारोह भी हो गया किन्तु तीनो विद्दार्थियों को घर जाने की आज्ञा न मिली । वे सोचने लगे सब कुछ तो पढ़ सीख लिया अब क्या बाकी है । वर्षों से घर नहीं गये उन्हें याद सता रही थी । सायंकाल होते ही गुरु ने कहा-" तुम तीनों चाहो तो आज जा सकते हो ।" जाने का नाम सुनकर तीनों शाम को ही चल पड़े । रास्ता पैदल का था , जंगल के रास्ते से जा रहे थे ।
गुरु ने पहले ही मार्ग में कांटेदार झाड़ियाँ बिछवा दीं थी । उनमे से एक विद्दार्थी ने ,जहां कांटे बिछे थे , वह स्थान छोड़कर रास्ता पार कर लिया । दूसरे ने छलांग लगाकर काँटेदार मार्ग पार किया । तीसरा झाड़ियाँ हटाकर रास्ता साफ करने में लग गया सोचा अँधेरे में दूसरे यात्रियों को कांटे चुभेंगे तो उन्हें बड़ा कष्ट होगा । दोनों विद्दार्थी जिन्होंने रास्ता पार कर लिया था , उससे कहने लगे जल्दी चलो अँधेरा होने वाला है ।
तीसरा विद्दार्थी जो कांटा साफ कर रहाथा बोला --" इसलिये कांटा साफ करना और जरुरी है कहीं कोई उलझकर गिर न पड़े , तुम चलो मैं आता हूँ ।"
अचानक झाड़ी में से गुरु प्रकट हो गये और बोले - " जो दो आगे चले गये वे अंतिम परीक्षा में असफल रहे अभी उन्हें कुछ दिन और गुरुकुल में रहना होगा । " जिसने कांटे बीने थे उसकी पीठ थपथपा कर कहा तुम अंतिम परीक्षा में उतीर्ण हुए , तुम जा सकते हो । गुरु ने कहा --
" अंतिम परीक्षा शब्द की नहीं प्रेम की थी । पांडित्य की नहीं औरों के लिये करुणा की थी ।"
जैसे जंगल में किसी अनजानी पगडण्डी के किनारे एक गुलाब खिला है । जो भी आता है, सम्राट हो या भिखारी वही उसकी खुशबु से विभोर होता चला जाता है । कोई न आये तो भी व ह अपनी सुरभि को अनंत आकाश में फैलाता रहता है । सुरभि बिखेरना , मुस्कान लुटाना उसकी स्वभाविक अवस्था है । ऐसे ही करुणा उस व्यक्ति की स्वाभाविक अवस्था है ।
गुरु ने पहले ही मार्ग में कांटेदार झाड़ियाँ बिछवा दीं थी । उनमे से एक विद्दार्थी ने ,जहां कांटे बिछे थे , वह स्थान छोड़कर रास्ता पार कर लिया । दूसरे ने छलांग लगाकर काँटेदार मार्ग पार किया । तीसरा झाड़ियाँ हटाकर रास्ता साफ करने में लग गया सोचा अँधेरे में दूसरे यात्रियों को कांटे चुभेंगे तो उन्हें बड़ा कष्ट होगा । दोनों विद्दार्थी जिन्होंने रास्ता पार कर लिया था , उससे कहने लगे जल्दी चलो अँधेरा होने वाला है ।
तीसरा विद्दार्थी जो कांटा साफ कर रहाथा बोला --" इसलिये कांटा साफ करना और जरुरी है कहीं कोई उलझकर गिर न पड़े , तुम चलो मैं आता हूँ ।"
अचानक झाड़ी में से गुरु प्रकट हो गये और बोले - " जो दो आगे चले गये वे अंतिम परीक्षा में असफल रहे अभी उन्हें कुछ दिन और गुरुकुल में रहना होगा । " जिसने कांटे बीने थे उसकी पीठ थपथपा कर कहा तुम अंतिम परीक्षा में उतीर्ण हुए , तुम जा सकते हो । गुरु ने कहा --
" अंतिम परीक्षा शब्द की नहीं प्रेम की थी । पांडित्य की नहीं औरों के लिये करुणा की थी ।"
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