जिन्हें जीवन की थोड़ी सी भी समझ है, वे इस बहुमूल्य जीवन को दूसरों पर दोषारोपण करने में नहीं गँवाते, वे इस समय को ईश्वर के स्मरण के साथ स्वयं की त्रुटियों को समझने व सुधारने में लगाते हैं ।
एक बाप ने बेटे को भी मूर्तिकला सिखाई । दोनों हाट में जाते और अपनी-अपनी मूर्तियाँ बेचकर आते । बाप की मूर्ति दो रूपये की बिकती तो बेटे की मूर्ति का मूल्य आठ-दस आने ही मिलता । हाट से लौटने पर बेटे को पास बैठाकर बाप, उसकी मूर्तियों में रही त्रुटियों को समझाता और अगले दिन उन्हें सुधारने के लिए कहता । यह क्रम वर्षों चलता रहा । लड़का समझदार था, उसने पिता की बातें ध्यान से सुनी और अपनी कला में सुधार करने का प्रयत्न करता रहा ।
कुछ समय बाद लड़के की मूर्तियाँ भी दो रूपये में बिकने लगीं । बाप अब भी उसी तरह समझाता और मूर्तियों में रहने वाले दोषों को सुधारने के लिए कहता । बेटे ने और अधिक ध्यान दिया तो कला और भी अधिक निखरी, अब मूर्तियाँ पाँच-पाँच रूपये की बिकने लगीं । सुधार के लिए समझाने का क्रम बाप ने तब भी बंद नहीं किया ।
एक दिन बेटे ने झल्लाकर कहा---- " आप ! तो दोष निकालने की बात बंद ही नहीं करते, मेरी कला अब तो आपसे भी अच्छी है, मुझे मूर्ति के पाँच रूपये मिलते हैं जबकि आपको दो रूपये ही मिलते हैं ।
बाप ने कहा---- " पुत्र ! जब मैं तुम्हारी उम्र का था, तब मुझे अपनी कला की पूर्णता का अहंकार हो गया और फिर सुधार की बात सोचना छोड़ दिया । तब से मेरी प्रगति रुक गई और दो रूपये से अधिक की मूर्तियाँ न बना सका । मैं चाहता हूँ कि वह भूल तुम न करो । अपनी त्रुटियों को समझने और सुधारने का क्रम सदा जारी रखो, ताकि बहुमूल्य मूर्तियाँ बनाने वाले श्रेष्ठ कलाकारों की श्रेणी में पहुँच सको । "
एक बाप ने बेटे को भी मूर्तिकला सिखाई । दोनों हाट में जाते और अपनी-अपनी मूर्तियाँ बेचकर आते । बाप की मूर्ति दो रूपये की बिकती तो बेटे की मूर्ति का मूल्य आठ-दस आने ही मिलता । हाट से लौटने पर बेटे को पास बैठाकर बाप, उसकी मूर्तियों में रही त्रुटियों को समझाता और अगले दिन उन्हें सुधारने के लिए कहता । यह क्रम वर्षों चलता रहा । लड़का समझदार था, उसने पिता की बातें ध्यान से सुनी और अपनी कला में सुधार करने का प्रयत्न करता रहा ।
कुछ समय बाद लड़के की मूर्तियाँ भी दो रूपये में बिकने लगीं । बाप अब भी उसी तरह समझाता और मूर्तियों में रहने वाले दोषों को सुधारने के लिए कहता । बेटे ने और अधिक ध्यान दिया तो कला और भी अधिक निखरी, अब मूर्तियाँ पाँच-पाँच रूपये की बिकने लगीं । सुधार के लिए समझाने का क्रम बाप ने तब भी बंद नहीं किया ।
एक दिन बेटे ने झल्लाकर कहा---- " आप ! तो दोष निकालने की बात बंद ही नहीं करते, मेरी कला अब तो आपसे भी अच्छी है, मुझे मूर्ति के पाँच रूपये मिलते हैं जबकि आपको दो रूपये ही मिलते हैं ।
बाप ने कहा---- " पुत्र ! जब मैं तुम्हारी उम्र का था, तब मुझे अपनी कला की पूर्णता का अहंकार हो गया और फिर सुधार की बात सोचना छोड़ दिया । तब से मेरी प्रगति रुक गई और दो रूपये से अधिक की मूर्तियाँ न बना सका । मैं चाहता हूँ कि वह भूल तुम न करो । अपनी त्रुटियों को समझने और सुधारने का क्रम सदा जारी रखो, ताकि बहुमूल्य मूर्तियाँ बनाने वाले श्रेष्ठ कलाकारों की श्रेणी में पहुँच सको । "
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