' विभूतियाँ दुधारी तलवार की तरह होती हैं । जहाँ ये सृजन में अपना चमत्कार प्रस्तुत करती हैं, वहीँ दिशा भटकने पर भयंकर विनाश एवं विध्वंस के द्रश्य भी प्रस्तुत करती हैं । '
देवताओं और असुरों में घोर युद्ध हो रहा था । राक्षसों के शस्त्र-बल और युद्ध कौशल के सम्मुख देवता टिक ही नही पाते थे । अब की बार वे हारकर जान बचाकर भागे, सब मिलकर महर्षि दत्तात्रेय के पास पहुँचे । असुरों ने भी उनका पीछा किया । असुर भी दत्तात्रेय के आश्रम में जा पहुँचे । वहां उन्होंने एक नवयुवती को देखा । अब दानव लड़ना तो भूल गये और उस स्त्री पर मुग्ध हो गये । वह नवयुवती रूप बदले हुए लक्ष्मी जी ही थीं, असुरों ने उनका अपहरण करने की चेष्टा की
दत्तात्रेय जी ने देवताओं से कहा, अब तुम तैयारी करके फिर से असुरों पर आक्रमण करो । लड़ाई छिड़ी और देवताओं ने असुरों पर विजय प्राप्त की ।
विजय प्राप्त करके देवता फिर दत्तात्रेय के पास आये और पूछने लगे, भगवन ! दो बार पराजय और अंतिम बार विजय का रहस्य क्या है ? महर्षि ने बताया----- जब तक मनुष्य सदाचारी-संयमी रहता है, तब तक उसमे पूर्ण बल विद्दमान रहता है और जब वह कुपथ पर कदम रखता है, तो उसका आधा बल क्षीण हो जाता है, परनारी का अपहरण करने की कुचेष्टा में असुरों का बल नष्ट हों गया था, इससे उन्हें जीतना सुगम हो गया ।
No comments:
Post a Comment