प्रिन्स क्रोपाटकिन का जन्म 1842 में रूस के एक समृद्ध, कुलीन और राजवंशी परिवार में हुआ था ।
आरम्भ में वे जार के प्रशंसक थे, उन्होंने सैनिक स्कूल में शिक्षा प्राप्त की तथा गवर्नर जनरल के
ए. डी. सी. बनकर साइबेरिया गये, वहां उन्होंने जो कुछ देखा वह उनके व्यक्तित्व के मानवीय पक्ष को जाग्रत कर देने में सफल हुआ । उन दिनों रूस में जार का शासन था और जार के कोपभाजन बने लोगों को अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए जीवन के शेष दिन साइबेरिया के अन्ध-लोक में नारकीय दुर्दशा में गुजारने पड़ते थे । क्रोपाटकिन जब ए. डी. सी. बनकर उस क्षेत्र का दौरा करने पहुंचे तो वहां की स्थिति देखकर उनका ह्रदय विद्रोह से भर उठा और उन्होंने तुरंत शासकीय सेवा से त्यागपत्र दे दिया । इसके बाद सेंट पीटर्सबर्ग यूनिवर्सिटी में पांच वर्ष तक गणित व भूगोल का अध्ययन किया ।
कहा जाता है किसी हिंसक डाकू से अहिंसक योद्धा अनीति और अन्याय के लिए खतरनाक होता है
प्रिन्स ने ऐसे लोगों से संपर्क किया जो क्रांति द्वारा जार के शासन को पलट देने की योजना तैयार कर रहे थे । क्रांति की प्रक्रिया और पद्धति का अध्ययन करने के लिए उन्होंने यूरोपीय देशों की यात्रा की । क्रांति उनका धर्म था लेकिन चाहे जैसे भले-बुरे साधनों द्वारा अपने लक्ष्य की प्राप्ति के सिद्धांत से उन्हें, नफ़रत थी । चाहे संगठन का काम हो, चन्दा इकठ्ठा करने का, विरोधियों से व्यवहार करना हो या दूसरी पार्टियों से संबंध बनाना, किसी भी काम में अनुचित साधनों का प्रयोग वे किसी भी दशा में सहन नहीं कर सकते थे । कई विषयों में महात्मा गाँधी ने भी प्रिन्स क्रोपाटकिन के विचारों से प्रेरणा प्राप्त की ।
1874 की घटना है---- सेंट पीटर्सबर्ग में प्रिन्स क्रोपाटकिन दूर-दूर से आये वैज्ञानिकों की सभा में
भाषण दे रहे थे, विज्ञान-वेता प्रिन्स का अदभुत प्रभाव लेकर लौटे कि प्रिन्स एक महान गणितज्ञ ही नहीं हैं, उनका भूगर्भ विद्दा में भी गहरा प्रवेश है । भाषण समाप्त कर वे अपनी गाड़ी मे आगे बढ़े कि उनके पास से गुजरती हुई दूसरी गाड़ी में बैठे जुलाहे ने उचककर प्रिन्स की ओर देखते हुये कहा--- मिस्टर बोरोडिन ! सलाम ! दोनों गाड़ियाँ रोक दी गईं, प्रिन्स विस्मित नेत्रों से जुलाहे की ओर ताकने लगे, जुलाहे के पीछे बैठे खुफिया पुलिस का आदमी कूद पड़ा और बोला मिस्टर बोरोडिन उर्फ क्रोपाटकिन-- मैं तुम्हे गिरफ्तार करता हूँ । प्रिन्स किसानो व जुलाहों के बीच अद्रश्य रूप से रहकर जन-साधारण की तकलीफों को हल करने के लिए शासन के विरुद्ध आवाज उठाते थे लेकिन उनके अहिंसक और शांतिपूर्ण तरीकों से भयभीत होकर सरकार ने उन्हें देशनिकाला दे दिया ।
41 वर्ष उन्हें अपने देश से बाहर निकालने पड़े, इस अवधि में अपनी लेखनी से उनने क्रांति की जड़ों को सींचा । जार के इशारों पर फ़्रांसीसी सरकार उन्हें अकारण ढाई वर्ष जेल में रखा, जेल में उन्होंने ' परस्पर सहयोग ' और ' रोटी का सवाल ' जैसे विश्वव्यापी महत्व के ग्रन्थों की रचना की ।
1917 में जब रूस की क्रांति सफल हुई तब वे रूस लौट आये । रुसी सरकार ने उनका स्वागत किया और मंत्रिमंडल में कोई सा भी पद लेने का सुझाव रखा लेकिन आजीवन सेवाव्रती प्रिन्स ने विनम्रता पूर्वक प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया | आज भी उनके जीवन की स्मृति दिलाने वाली वस्तुएं उनके नाम पर स्थापित म्यूजियम में सुरक्षित हैं |
आरम्भ में वे जार के प्रशंसक थे, उन्होंने सैनिक स्कूल में शिक्षा प्राप्त की तथा गवर्नर जनरल के
ए. डी. सी. बनकर साइबेरिया गये, वहां उन्होंने जो कुछ देखा वह उनके व्यक्तित्व के मानवीय पक्ष को जाग्रत कर देने में सफल हुआ । उन दिनों रूस में जार का शासन था और जार के कोपभाजन बने लोगों को अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए जीवन के शेष दिन साइबेरिया के अन्ध-लोक में नारकीय दुर्दशा में गुजारने पड़ते थे । क्रोपाटकिन जब ए. डी. सी. बनकर उस क्षेत्र का दौरा करने पहुंचे तो वहां की स्थिति देखकर उनका ह्रदय विद्रोह से भर उठा और उन्होंने तुरंत शासकीय सेवा से त्यागपत्र दे दिया । इसके बाद सेंट पीटर्सबर्ग यूनिवर्सिटी में पांच वर्ष तक गणित व भूगोल का अध्ययन किया ।
कहा जाता है किसी हिंसक डाकू से अहिंसक योद्धा अनीति और अन्याय के लिए खतरनाक होता है
प्रिन्स ने ऐसे लोगों से संपर्क किया जो क्रांति द्वारा जार के शासन को पलट देने की योजना तैयार कर रहे थे । क्रांति की प्रक्रिया और पद्धति का अध्ययन करने के लिए उन्होंने यूरोपीय देशों की यात्रा की । क्रांति उनका धर्म था लेकिन चाहे जैसे भले-बुरे साधनों द्वारा अपने लक्ष्य की प्राप्ति के सिद्धांत से उन्हें, नफ़रत थी । चाहे संगठन का काम हो, चन्दा इकठ्ठा करने का, विरोधियों से व्यवहार करना हो या दूसरी पार्टियों से संबंध बनाना, किसी भी काम में अनुचित साधनों का प्रयोग वे किसी भी दशा में सहन नहीं कर सकते थे । कई विषयों में महात्मा गाँधी ने भी प्रिन्स क्रोपाटकिन के विचारों से प्रेरणा प्राप्त की ।
1874 की घटना है---- सेंट पीटर्सबर्ग में प्रिन्स क्रोपाटकिन दूर-दूर से आये वैज्ञानिकों की सभा में
भाषण दे रहे थे, विज्ञान-वेता प्रिन्स का अदभुत प्रभाव लेकर लौटे कि प्रिन्स एक महान गणितज्ञ ही नहीं हैं, उनका भूगर्भ विद्दा में भी गहरा प्रवेश है । भाषण समाप्त कर वे अपनी गाड़ी मे आगे बढ़े कि उनके पास से गुजरती हुई दूसरी गाड़ी में बैठे जुलाहे ने उचककर प्रिन्स की ओर देखते हुये कहा--- मिस्टर बोरोडिन ! सलाम ! दोनों गाड़ियाँ रोक दी गईं, प्रिन्स विस्मित नेत्रों से जुलाहे की ओर ताकने लगे, जुलाहे के पीछे बैठे खुफिया पुलिस का आदमी कूद पड़ा और बोला मिस्टर बोरोडिन उर्फ क्रोपाटकिन-- मैं तुम्हे गिरफ्तार करता हूँ । प्रिन्स किसानो व जुलाहों के बीच अद्रश्य रूप से रहकर जन-साधारण की तकलीफों को हल करने के लिए शासन के विरुद्ध आवाज उठाते थे लेकिन उनके अहिंसक और शांतिपूर्ण तरीकों से भयभीत होकर सरकार ने उन्हें देशनिकाला दे दिया ।
41 वर्ष उन्हें अपने देश से बाहर निकालने पड़े, इस अवधि में अपनी लेखनी से उनने क्रांति की जड़ों को सींचा । जार के इशारों पर फ़्रांसीसी सरकार उन्हें अकारण ढाई वर्ष जेल में रखा, जेल में उन्होंने ' परस्पर सहयोग ' और ' रोटी का सवाल ' जैसे विश्वव्यापी महत्व के ग्रन्थों की रचना की ।
1917 में जब रूस की क्रांति सफल हुई तब वे रूस लौट आये । रुसी सरकार ने उनका स्वागत किया और मंत्रिमंडल में कोई सा भी पद लेने का सुझाव रखा लेकिन आजीवन सेवाव्रती प्रिन्स ने विनम्रता पूर्वक प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया | आज भी उनके जीवन की स्मृति दिलाने वाली वस्तुएं उनके नाम पर स्थापित म्यूजियम में सुरक्षित हैं |
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