स्नायु रोग के तेज आघात से उनके दोनों हाथ खराब हो गये । वे हमेशा दूसरों की सेवा के लिए तत्पर रहते थे । मित्रों ने पूछा--- " अब क्या होगा आपकी सेवा का ? " उनका जवाब था--- क्यों ? वह तो चलती रहेगी । "
' कैसे ? ' सुनने वाले आशचर्यचकित थे । विनोबा कुट्टी जी का उत्तर था----- " अरे भाई ! हाथ ही तो खराब और बेकार हुए हैं । अभी मेरे पास भावनाओं से लबालव ह्रदय, सक्रिय, सतेज मस्तिष्क और सुद्रढ़ पैर हैं । आज मनुष्य को दूसरों की शारीरिक सहायता की उतनी जरुरत नहीं है जितनी की मानसिक सहायता की । शारीरिक सेवा तो सिर्फ बीमारों को चाहिए । अधिकांश जनसंख्या जो शरीर से स्वस्थ रहते हुए मानसिक रूप से बेहद परेशान है, उनकी सहायता तो विचारों से ही हो सकना संभव है । " अब उनकी पद-यात्रा शुरू हो गई । घर-घर, दरवाजे-दरवाजे पहुँचने लगे, हरेक से बड़े प्रेम से मिलते, उनका हाल-चाल, हैरानी-परेशानी मालूम करते और उपयुक्त समाधान सुझाते ।
कभी-कभी उनके इस तरह पूछने पर लोगों को अत्याधिक विस्मय होता कि जिसके स्वयं के हाथ नहीं हैं वह हमारी तकलीफें पूछ रहा है, कभी अपना विस्मय प्रकट भी कर देते, इस पर वह कहते----- " मेरे हाथ तो रोग से बरबाद हो गये । पर ऐसे न जाने कितने हैं जो सब कुछ सही सलामत रहते हुए भी भटक रहें हैं, उन्हें राह नहीं सूझ रही कि क्या करें ? मेरा काम उन्ही भटकों को राह दिखाना है, उन्हें जीवन का मर्म सुझाना है । यह बात उनके गले उतारनी है कि अभावों का रोना मत रो, अभी भी तुम्हारे पास ऐसा कुछ है जिसका उपयोग कर स्वयं निहाल हो सकते हो तथा औरों को निहाल कर सकते हो । "
' कैसे ? ' सुनने वाले आशचर्यचकित थे । विनोबा कुट्टी जी का उत्तर था----- " अरे भाई ! हाथ ही तो खराब और बेकार हुए हैं । अभी मेरे पास भावनाओं से लबालव ह्रदय, सक्रिय, सतेज मस्तिष्क और सुद्रढ़ पैर हैं । आज मनुष्य को दूसरों की शारीरिक सहायता की उतनी जरुरत नहीं है जितनी की मानसिक सहायता की । शारीरिक सेवा तो सिर्फ बीमारों को चाहिए । अधिकांश जनसंख्या जो शरीर से स्वस्थ रहते हुए मानसिक रूप से बेहद परेशान है, उनकी सहायता तो विचारों से ही हो सकना संभव है । " अब उनकी पद-यात्रा शुरू हो गई । घर-घर, दरवाजे-दरवाजे पहुँचने लगे, हरेक से बड़े प्रेम से मिलते, उनका हाल-चाल, हैरानी-परेशानी मालूम करते और उपयुक्त समाधान सुझाते ।
कभी-कभी उनके इस तरह पूछने पर लोगों को अत्याधिक विस्मय होता कि जिसके स्वयं के हाथ नहीं हैं वह हमारी तकलीफें पूछ रहा है, कभी अपना विस्मय प्रकट भी कर देते, इस पर वह कहते----- " मेरे हाथ तो रोग से बरबाद हो गये । पर ऐसे न जाने कितने हैं जो सब कुछ सही सलामत रहते हुए भी भटक रहें हैं, उन्हें राह नहीं सूझ रही कि क्या करें ? मेरा काम उन्ही भटकों को राह दिखाना है, उन्हें जीवन का मर्म सुझाना है । यह बात उनके गले उतारनी है कि अभावों का रोना मत रो, अभी भी तुम्हारे पास ऐसा कुछ है जिसका उपयोग कर स्वयं निहाल हो सकते हो तथा औरों को निहाल कर सकते हो । "
No comments:
Post a Comment