आज देश की सर्वोपरि आवश्यकता अपने धर्म, समाज और संस्कृतिक परम्पराओं को पुनर्जीवित करने की है । पं. भगवद् दत्त देश के विभाजन से पूर्व लाहौर के निवासी थे, विभाजन के बाद वे भारत आ गये और पंजाब में कैम्प कॉलेज में प्राध्यापक नियुक्त हो गये | उनका सारा समय इतिहास की गवेषणा और सांस्कृतिक उपादानो की शोध में ही बीता |
पंडितजी कहा करते थे---- " इतिहास शुद्धि आज देश की सबसे बड़ी आवश्यकता है | इतिहास से ही नयी पीढ़ी जातीय स्वाभिमान और उन्नति की प्रेरणाएं प्राप्त करती है, अत: उसका स्वरुप अपनी गरिमा के अनुरूप ही रहना चाहिए । इसलिए उन्होंने भारतीय इतिहास की शोध नये ढंग से करने और भारतवर्ष का नया इतिहास न केवल लिखने की प्रेरणा दी अपितु लिखा और प्रसारित भी
किया । उनकी अमूल्य कृतियाँ----- ' वैदिक इतिहास का वाड्मय ' ' वेद विद्दा निदर्शन ' तथा ' ' भारतवर्ष का वृहद इतिहास ' जो एक बार पढ़ लेता है, पाश्चात्य विचारों ने उसके मन-मस्तिष्क पर कितनी ही गहरी जड़ें क्यों न जमा रखी हों, दिमाग को झकझोर कर रख देती हैं ।
उनकी कृतियों ने पश्चिम के विद्वानों को भी यह मानने को विवश कर दिया कि वेद गड़रियों के गीत नहीं ज्ञान-विज्ञान के अद्धितीय भंडार हैं । भारतीय दर्शन काल्पनिक उड़ाने नहीं , चिन्तन का यथार्थ धरातल है , उपनिषद मात्र साहित्यिक कृतियाँ नहीं वरन जीवन विज्ञान के अमूल्य ग्रन्थ रत्न हैं । यह पं. भगवद् दत्त ही हैं जिन्होंने पेरिस विश्वविद्दालय के प्रोफेसर लुई रिनो तक को जो कभी भारतीय धर्म और समाज व्यवस्था के प्रबल आलोचक थे , के मुँह से निकलवाया --- " वेद के मंत्रों में अभूतपूर्व विज्ञान भरा पड़ा है , भारतीय संस्कृति विश्व संस्कृति हो सकती है । "
उनकी उपलब्धियों का एक उदाहरण यह भी है कि आई. ए. एस. के प्रशिक्षणार्थियों को भारतीय संस्कृति का ज्ञान कराने के लिए पं. भगवद् दत्त को ही चुना गया था , प्रशिक्षणार्थियों का मानना था कि पंडितजी जैसी अध्ययनशीलता, लगन और सेवा-साधना का भाव यदि भारतीयों मे आ जाये तो सारा विश्व भारतीय धर्म एवं संस्कृति के पीछे-पीछे चलने लगे , पंडितजी सांस्कृतिक स्वाभिमान के मूर्तिमान प्रतीक थे, उनकी सेवाओं के लिए उन्हें नरेंद्र देव पुरस्कार जैसा विशिष्ट सम्मान भी प्रदान किया गया
पंडितजी कहा करते थे---- " इतिहास शुद्धि आज देश की सबसे बड़ी आवश्यकता है | इतिहास से ही नयी पीढ़ी जातीय स्वाभिमान और उन्नति की प्रेरणाएं प्राप्त करती है, अत: उसका स्वरुप अपनी गरिमा के अनुरूप ही रहना चाहिए । इसलिए उन्होंने भारतीय इतिहास की शोध नये ढंग से करने और भारतवर्ष का नया इतिहास न केवल लिखने की प्रेरणा दी अपितु लिखा और प्रसारित भी
किया । उनकी अमूल्य कृतियाँ----- ' वैदिक इतिहास का वाड्मय ' ' वेद विद्दा निदर्शन ' तथा ' ' भारतवर्ष का वृहद इतिहास ' जो एक बार पढ़ लेता है, पाश्चात्य विचारों ने उसके मन-मस्तिष्क पर कितनी ही गहरी जड़ें क्यों न जमा रखी हों, दिमाग को झकझोर कर रख देती हैं ।
उनकी कृतियों ने पश्चिम के विद्वानों को भी यह मानने को विवश कर दिया कि वेद गड़रियों के गीत नहीं ज्ञान-विज्ञान के अद्धितीय भंडार हैं । भारतीय दर्शन काल्पनिक उड़ाने नहीं , चिन्तन का यथार्थ धरातल है , उपनिषद मात्र साहित्यिक कृतियाँ नहीं वरन जीवन विज्ञान के अमूल्य ग्रन्थ रत्न हैं । यह पं. भगवद् दत्त ही हैं जिन्होंने पेरिस विश्वविद्दालय के प्रोफेसर लुई रिनो तक को जो कभी भारतीय धर्म और समाज व्यवस्था के प्रबल आलोचक थे , के मुँह से निकलवाया --- " वेद के मंत्रों में अभूतपूर्व विज्ञान भरा पड़ा है , भारतीय संस्कृति विश्व संस्कृति हो सकती है । "
उनकी उपलब्धियों का एक उदाहरण यह भी है कि आई. ए. एस. के प्रशिक्षणार्थियों को भारतीय संस्कृति का ज्ञान कराने के लिए पं. भगवद् दत्त को ही चुना गया था , प्रशिक्षणार्थियों का मानना था कि पंडितजी जैसी अध्ययनशीलता, लगन और सेवा-साधना का भाव यदि भारतीयों मे आ जाये तो सारा विश्व भारतीय धर्म एवं संस्कृति के पीछे-पीछे चलने लगे , पंडितजी सांस्कृतिक स्वाभिमान के मूर्तिमान प्रतीक थे, उनकी सेवाओं के लिए उन्हें नरेंद्र देव पुरस्कार जैसा विशिष्ट सम्मान भी प्रदान किया गया
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